Friday, December 30, 2022

किस मिट्टी की बनी हो?

किस मिट्टी की बनी हो?

रहस्य सी जन्मी थी 
रहस्य सी ही मिट्टी में समाओगी क्या? 
किस मिट्टी की बनी हो 
दर्पण में झाँक कर नहीं 
भीतर टटोल कर बताओगी क्या? 

  
मुझे गोद लिए एक नीली नदी
मैं श्वेत पवित्र, 
बोलूँ बिन छन्नी 
बिखेरूँ नवपुस्तक सा इत्र, 
थोड़ा फुसलाओ बहुत बहल जाऊँ
थोड़ा उकसाओ पूरी कथा सुनाऊँ, 
मन चाहे तो एक सेतु एक छोर
पर मैं धारा संग बहती जाऊँ, 
जैसे कोई “कागज़” की नाव। 
 
अब मेरे समक्ष एक पर्वत विशाल
समतल से चोटी तक
पहले ही बने पदचिन्हों के निशान, 
मैं पग पग ऊपर चढ़ती जाऊँ, 
यदि स्वयं की श्वेतता से सकुचाऊँ
भेड़चाल में रंगती जाऊँ, 
छोर को भूल 
ढूँढ़ रही बस संगी साथी 
मैं जैसे “लकड़ी” की काठी। 
 
अब मुझे घेरे एक हरा-भरा गाँव 
आढ़ी-टेढ़ी छटाओं में 
किंकर्तव्य विमूढ़ में भटकी, 
बहु एकपक्षीय सम्बन्ध निभाती 
स्वयं को भूल 
बनी दूजों की रंगबिरंगी प्रतिलिपि, 
जैसे आम्र बिन गुठली 
मैं मात्र “प्लास्टिक” की कठपुतली। 
 
अब मुझे छेड़े एक महानगर
चिकनी सुरक्षित सड़कें 
सुनियंत्रित यातायात की क़तार, 
यूँ नियंत्रित करती मुझे 
हर ऐरे ग़ैरे की पुकार, 
क्षण में बनाती 
क्षण में करती अंश हज़ार, 
दिशाहीन बिखरी यह चिड़िया 
मैं जैसे “कांच” की गुड़िया। 
 
अब मुझे परखे एक सुनसान मैदान
देख मुझे खंडित निराधार 
बिन धारणा पूछे एक सवाल 
कि आख़िर तुम्हें क्या चाहिए? 
 
नहीं चाहती—
मौसम सेहत सेवन जानने का व्यवहार
दूजों को देना स्वयं से अधिक महत्त्व अधिकार, 
पीठ-पीछे बेहिचक उपहास 
समक्ष नपा-तुला बोलने का ढंग, 
अतिव्यस्त होने का ढोंग 
आत्मलीन आत्मपूजक का संग, 
ख़ालीपन को भरने की ललक में सौ छिछले सम्बन्ध। 
 
जानती हूँ—
फिर श्वेत नहीं हो पाऊँगी
मैली परतें जो चढ़ी हैं अनगिनत 
तिरस्कारों, विफलताओं, त्रुटियों की, 
टूटी बिगड़ी कड़ियों, निकटों की मृत्युओं की। 
 
फिर भी चाहती हूँ—
ढूँढ़ूँ डंके की चोट पर 
वही बचपन का नकारा हुआ छोर, 
करूँ एक तपस्या बड़ी, 
बन जाऊँ स्वयं से स्वयं तक की कड़ी। 
 
हो जाऊँ यूँ रूपांतरित कि 
जब कोई चौंधियाँ कर पूछे 
किस मिट्टी की बनी हो तुम? 
तब मैं मुस्कुरा कर कहूँ 
मिट्टी से तो नहीं बनी 
पर जब मिलूँगी मिट्टी में
जलूँगी गर्व से तन के, 
घोर तप से बना 
एक “धातु” बन के। 
एक दिन अवश्य मिलूँगी 
जतन से खोदने वाले को 
सोनम सुनिधि बन के, 
लगन से खोजने वाले को 
जीवबिंदुएँ जोड़ता स्वर्णिम सेतु बन के।

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पृष्ठभूमि: 

किस मुँह से बताएँ कि 
एक कदम उन्नत की ओर बढ़ाते ही
दो कदम पतन की ओर गिरते हैं,
फिर भी प्रयत्न करने में लगे हैं 
क्योंकि सुना है 
बारह बरस बाद तो
घूरे के भी दिन फिरते हैं। 

विश्व अध्यात्म दिवस पर मेरी नयी रचना 

Tuesday, November 1, 2022

कविता कैसी लगी?

 उपहास से पूछ लो—

सवेरे उठते ही मैंने बिस्तर क्यों बनाया नहीं
दिन के दस बजे तक मैंने क्यों नहाया नहीं
और मेज़ पर जमी धूल हटाने का
मुहूर्त अब तक क्यों आया नहीं? 
 
मार दो ज़ोरदार ताने—
चाल में धमधमाहट क्यों हैं
कपड़े फूहड़ से और बाल चीकट से क्यों हैं
पर्स में सामान इतना ठूँस ठूँस कर क्यों जमाती हूँ
बिना इस्तरी किये वस्त्रों में
निर्लज्जता से दफ़्तर कैसे चली जाती हूँ? 
 
दे दो तीखी टिपण्णी—
रसोई में हाथ सुटुर सुटुर क्यों चलते हैं
प्लैटफ़ॉर्म पर चायपत्ती के निशान कैसे बनते हैं
बुनाई सिलायी में क़तई सफ़ाई क्यों नहीं है
बढ़ती उम्र संग भी स्वभाव में ठंडाई क्यों नहीं है
महाभारत के पात्र याद क्यों नहीं रहते हैं
बातों में केवल फ़िल्मीसितारे क्यों बहते हैं? 
 
पेंचीली नज़र से जाँच लो—
हिंदी वर्तनी में कितनी त्रुटियाँ हैं
अँग्रेज़ी व्याकरण में क्या क्या कमियाँ हैं
गणित के सड़े से सवाल में अंक कहाँ कटे हैं
परीक्षा के एक दिन पहले तक सारे पाठ क्यों नहीं रटे हैं
घंटों फोन पर किससे बतियाती हूँ
ऐरे ग़ैरे अभिनेता पर क्यों मोहित हो जाती हूँ? 
 
जम कर हँस दो—
मेरे यूट्यूब देखकर साड़ी बाँधने पर
दिन की दो दर्जन सेल्फ़ियों पर
मासिक धर्म का समाचार बनाने पर
रोज़मर्रा के रस्ते पर भी गूगल मैप्स लगाने पर। 
 
आज समझ नहीं आता
क्या सही क्या ग़लत
अभिव्यंजना का हुआ
कुछ ऐसा कायापलट—
उपहासमय प्रश्न बन गए सकुचाये से सवाल, 
ज़ोरदार ताने बन गए सम्भले हुए सुर तान, 
तीखी टिपण्णी बन गयी सरस बोलचाल, 
पेंचीली नज़र बन गयी समादर का निहार, 
उड़ती हुई हँसी बन गयी मुँडेर पर बैठी मुस्कान, 
आज समझ नहीं आता
क्या ग़लत क्या सही
जाने क्यों माँ को लगता
अब मैं हो गयी हूँ बहुत बड़ी। 
 
सुना है सुकवियित्री हो
तो रच लो स्वयं को
बन जाओ पहले सी निंदक सगी, 
सुना है समीक्षक भी हो 
तो बिन छन्नी बता डालो
मेरी यह कविता कैसी लगी? 

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पृष्ठभूमि : 

मेरा मात्र एक सुरूप सत्य - 
तेरा कोई रूप कोई रंग ना होगा 
जिसे मैंने सराखों पर रख 
मंत्रमुग्ध हो सराहा नहीं।  

शेष हर कुरूप सत्य
है पूर्णरूपेण स्वीकार
पर तेरा यह
विरूद्ध रूप विपरीत रंग
मुझे कतई गंवारा नहीं।  

Friday, October 7, 2022

मत जगना उस रैना

पृष्ठभूमि: शरद पूर्णिमा पर संगी कवियों से मेरा लघु अनुरोध!   

मत जगना उस रैना 

मेरे प्यारे कविवर!
तुम्हे कलम की सौगंध
मत जगना उस रैना
मत लिखना ऐसा छंद -     
जिसे देखते ही 
जी ना फिसल जाए,
जो विचलित से चित्त को 
संलग्न ना कर पाए,
जिसे बारम्बार पढ़ने को
मन नहीं ललचाये,
जिसके सेवन से
भीतर की ऋतु ना बदल पाए।

मत जगना उस रैना 
मत लिखना ऐसा छंद -  
जिसमे वही पुरानी उपमाएँ
जबरन के तुकांत समाये, 
जो एकपरतीय विषय पर
मात्र बहुमत दर्शाये,
जिसमे आरम्भ से अंत रहे
मनोदशा जस की तस,
जिसकी छवि में छाया हो
मात्र एक अमावस।

मेरे प्यारे कविवर!
तुम्हे कलम की सौगंध
अपलक तारे गणना  
रच जाना ऐसा छंद -  
जो धारारुख मोड़ जाए
पत्थरों को तोड़ जाए
मन के तार मरोड़ जाए 
प्राणों को झकझोड़ जाए। 

तो बस!

त्याग दो लज्जा 
झिझक के सारे रोधक अभ्र,
मूंद लो दो नैन
बस तुम झाँक लो भीतर,
देख लो अंदर विराजित
अक्षरा के स्वर,
चीर कर अपना ह्रदय 
करो पद्य न्योछावर,   
दान दो एक घटती बढ़ती 
चेतना की सैर, 
ग्यारसों से धुलते जाएँ
मन के सारे बैर
जाग लो जब तक ना हो  
उस सूचिका में सूत
काव्य में जब तक ना हो

वह वह चौदहवीं का पूत।  

Thursday, September 22, 2022

संकेत की भाषा

 Published/Copyrighted:https://sahityakunj.net/entries/view/sanket-ki-bhasha

 पृष्ठभूमि:  "True poetry is for the listener." (असली काव्य सुनने वाले के लिए होता है) - Freddie Mercury 

My new creation on World's Sign Language Day 

संकेत की भाषा

कौन हो तुम?
मैं वह हूँ जिस पर ईश्वर ने
विशेष की मोहर लगाई थी,
कर्णावर्त तंत्रिका जन्मजात
विकसित नहीं हो पाई थी।   
मेरे जन्म पर यह जान मेरी माँ
फूट फूट कर रोई थी,
ग्लानि मे कितनी रातें
एक झपकी भी नहीं सोई थी

फिर तुम कौन सी भाषा
बोलते हो और सुनते हो?
और कौन सी भाषा में
भविष्य के सपने बुनते हो?

यह ऐसी भाषा है जिसे
आम व्यक्ति शायद ही सुन सकता है। 
क्योंकि इस भाषा को सुनने के लिए
कान की नहीं ध्यान की आवश्यकता है
हाँ, वही ध्यान जो -
दुनिया से लेने के लिए 
आपने सारे कैमरों को स्वयं की ओर मोड़ लिया है,
आत्मलीनता आत्मजुनूनी के दौर में 
आपने इसे दूसरों की ओर देना ही छोड़ दिया है

जब मुझसे कोई कुछ कहता है
मैं उस क्षण में उपस्थित रहता हूँ, 
बात को दोहराने को कभी नहीं कहता हूँ   
वक्ता की भावनाओं के अंदर तक झांकता हूँ,
अर्जुन का लक्ष्य समझ उस फ़ोन को नहीं ताकता हूँ   

जब मैं किसी से परिचय करता हूँ
उन्हें जानने के लिए 
स्वयं का पूरा अवधान संचय करता हूँ   
नाम पूछता हूँ याद रखने के लिए
ना केवल औपचार प्रकट करने के लिए 
हाल-चाल पूछता हूँ हृदयव्यथा घेरने के लिए 
ना कि उत्तर सुने बिना ही मुँह फेरने के लिए 

भविष्य का सपना विशेष तो नही
पर है श्रवणीय - 
नवाचार के अवसर को नई परिभाषा दिलाने का,  
हाव भाव पढ़ने की शैली को दुनिया को सिखाने का, 
भूली बिसरी सुनने की कला को फिर वापिस लाने का  

पर भूल कर भी मुझे भिन्न ना समझना! 
आखिर हूँ कृष्ण का ही रूप,
अतिबुद्ध उपदेशक हूं,
पर हूँ मोहक नटखट भी,
बहुत मज़ा आता है मुझे शोर मचाने में, 
ईश्वर ही जाने क्यों रोई थी माँ
मैं तो मदमस्त हूँ व्यस्त हूँ इतिहास रचाने में  

प्रवाह के विपरीत तैरते हुए 
धाराप्रवाह आती मुझे,
यह उंगली सञ्चालन से बनी 
दुनिया की सबसे अभिव्यंजक भाषा। 
माँ को गदगद कर गर्व से भरकर
ख़ुशी के आंसू देने की आशा,
मातृभाषा से ऊंचा स्थान रखती
मेरी यह संकेत की भाषा।  

Tuesday, September 13, 2022

क्या लगती हो तुम मेरी?

क्या लगती हो तुम मेरी?

आठ भेष में आती 
एक झिलमिल करती फेरी,
अदल बदल यूँ जाती 
मानो झट से हो पहन आती  
अलग-अलग शैली में 
एक साड़ी चंदेरी,  
छाने-बीने तो खूब
तुम्हारे चन्द्रमय बहुरूप,
फिर भी मैं हूँ अनजान अँधेरी,
नही जानती - 
क्या लगती हो तुम मेरी। 

पढ़ती मन की हर एक बात
बस धीमे से छू कर मेरी हथेली, 
करती पूरा हर वाक्य 
हर अर्धविराम के बाद की पहेली, 
लगता जैसे हो मेरी 
वह कच्ची उमर की पक्की सहेली
 (१) 

तरह तरह से रिझाते 
अधूरे-पूरे अक्षर के आकार,
श्रृंगार रस से भीगा लगता 
उपमा रूपक का संसार, 
बन जाती मैं खुद का 
सबसे सुन्दर अनुवाद, 
जब बन जाती तुम 
मेरी प्रीति मेरा अनुराग। (२) 

कभी स्पष्टवक्त अनुजा बन 
बता जाती हर रस की
सही मात्रा सही हद, 
तो कभी रिक्तपटिया सी भार्या बन 
ग्रहण कर जाती
हर कुंठा हर कटुशब्द (३) 

कभी बन शिक्षिका जड़ देती 
मन में समस्त शब्दकोष,
सिखलाती सूक्ष्म शब्द चयन

ध्वनि अलंकार गुण दोष, 
देती अभिव्यक्ति की सशक्ति  
कुछ इस भांति, 
कि लिखूँ तो काव्य 
पर पढ़ो तो क्रांति। (४)   

पहली बार देखा तो लगा 
अनंत प्रार्थनाओं के बाद 
सीधे परीनगर से आयी 
बिना किसी मिलावट के
बार बार देखा तो लगा 
जैसे मैंने ही बनाया
इसे 
अपनी लिखावट से, 
नयन-नक्श से लगती
मेरी आँखों की चन्द्रबिन्दु का तारा, 
जब बन जाती मेरी आत्मजा 
मेरे प्राणो का अंतिम सहारा  (५) 

कभी थक जाती तो 
बन जाती मेरी अवमूल्यित माँ, 
बड़ी सरलता से सिखा देती 
जीवन का कठिन व्याकरण,
एक शब्द प्रयोग ना करती 
बस दिखा देती एक सुदृढ़ उदाहरण । (६)  

जब बन जाती मां भारती 
सुधाती सारे मूल रूप 
संधियों को तोड़ मोड़ के, 
परदेस में रखती मुझे 
जड़ो से जोड़ के, 
रोक नहीं पाऊ आनंदमय अश्रु 
जब सुन लूँ अपने अंशों को 
दो शब्द भी इसके बोलते  (७) 

देती वेद मन्त्रों का उच्चारण  
वीणा वाणी की स्वरा, 
अंतस तक रखती मुझको  
उच्च-कम्पित सुशोभित खरा, 
जब जिव्हा पर उतर जाती
बन कर माँ अक्षरा  (८) 

छाने-बीने तो खूब
तुम्हारे चन्द्रमय बहुरूप,
फिर भी मैं हूँ अनजान अँधेरी,

नहीं जानती -
 
लगाऊं कौन से स्वर
सजाऊं कौन से व्यंजन,
कैसे करूँ नमन, 
दूं कौन सा उपहार?
कैसे मनाऊं यह चौदह सितम्बर का
मेरा मनभावन त्यौहार? 
अब बस भी करो 
यह रिश्तों की हेरा फेरी,
बताओ ना !
क्या लगती हो तुम मेरी?

Copyrighted/Published: https://sahityakunj.net/entries/view/kya-lagati-ho-tum-meri

पृष्ठभूमि: भारतवर्ष में मनाए जाने वाले पचासों पर्वों में से मेरे सबसे मनभावन पर्व पर सीधे ह्रदय से निकली मेरी नयी रचना - 


Tuesday, August 23, 2022

असली क्षमावाणी

published/copyrighted: https://sahityakunj.net/entries/view/asali-kshamvani
पृष्ठभूमि: कच्ची उम्र से जैनधर्म के इस पर्व से सम्मोहित मेरी नयी रचना

असली क्षमावाणी

हाँ! उन्होंने हमें ठेस पहुंचाई! 
हाथ बने उपहारों की कीमत न चुकाई
एहसानों की सुधबुध न आई,
कौशलों की कद्र न जताई
दोषों की प्रसिद्धि करवायी,
बिन समझे ही धारणा बनाई
मन के कोलाहल की हंसी उड़ाई,
पदोन्नति पर दी न बधाई
चुनौतियों में संवेदना न दिखाई,
रक्तरंजित प्रेमपत्र के उत्तर एक चिट्ठी न आई
सालों की मित्रता पर सालगिरह याद न आई,
अंश के जन्म पर नहीं की गोद भराई
परिजन की मृत्यु पर सांत्वना न आई,
हाँ, उन्होंने हमें ठेस पहुंचाई।   

क्षमा तो मांगी नही तनिक भी
फिर भी चलो हमने उन्हें माफ किया 
पर्यूषण के अवसर पर 
अपना मन भी साफ किया। 

हाय! यह मैंने क्या किया था! 
मति मारी गई थी या चरस खा लिया था? 
सप्रेम भेंटो पर मुँह बना दिया था 
कितनों की कृपाओं को भुला दिया था,
खरी प्रतिभाओं पर प्रश्न उठा दिया था
राई सी त्रुटियों का तमाशा बना दिया था,
उनके भिन्न होने का उपहास किया था
उनकी व्यग्रता को हंस कर नकार दिया था,
दूजे की विजय को सहा नहीं था
उनके संघर्षो को सुन मन ही मन मुस्का दिया था,
निर्दोष प्रेम को झट से जुदा किया था
बचपन की मित्रता पर दार धरा दिया था,
दूजे के शुभ समाचार पर स्वयं को जला लिया था 
कुटुंबी को शैय्याग्रस्त अंततः विदा किया था,
हाय, यह मैने क्या किया था,
मति मारी गई थी या चरस खा लिया था? 

दोष तो अक्षम्य थे
फिर भी चलो आज स्वयं को माफ किया, 
पर्यूषण के अवसर पर 
अपना मन भी साफ किया। 

यह उपरोक्त वाक्य
कुछ सुने सुने से लगते हैं 
प्रतिवर्ष पुनरावृत्त हो 
फिर सधे सधे से बंटते हैं।  
पर लोग जितना सुन्दर बोलते है
जितना सुन्दर लिखते हैं,  
उतने सुन्दर क्यों नहीं दिखते हैं?
मात्र तीस के फिर साठ के क्यों दिखते हैं?
क्यों यह काले रंगे केश
हाथ फेरते ही गिरते हैं?
कहीं ऐसा तो नहीं कि 
वचन में क्षमावाणी 
पर मन में जटिल गांठे लिए फिरते हैं? 

आज पर्व के पहले दिन 
पहली बार दिल खोल ही दो 
क्षमा का यह ढोंग करना छोड़ ही दो, 
मन की गीता पर हाथ रखो
लोकमत से डरना छोड़ ही दो,  
सच सच कहो! 
क्या दूजों को
क्या स्वयं को माफ किया?

मेरे प्रिये! सच कहूँ तो,
वर्षों से निरामिष होकर भी 
तामसिक प्रवृत्ति नहीं जाती है,
माफ़ किया बोलकर भी 
स्मृतियाँ साफ़ नहीं हो पाती है,
भींख मांगने पर भी  
हमारे हिस्से क्षमा नहीं आती हैं
दर्दनाक गुत्थियाँ
पत्थर की लकीर की तरह 
वहीं की वहीं रह जाती हैं।  

खम्मामि सव्व जीवेषु सव्वे जीवा खमन्तु में, मित्ति में सव्व भू ए सू वैरम् मज्झणम् केण इ

कितना अयथार्थ 
कितना असंभव 
यह उपलक्ष्य लगता है, 
स्पष्ट प्रतीत होता है
फिर भी दूर यह लक्ष्य लगता है।  
जैन तो नही जन्मे
न बन पाए श्वेताम्बर दिगंबर,
अतितुच्छ हम कैसे जाने
इस अतिमहामना पर्व का मंतर,
फिर भी प्रयत्न करते हैं 
इसे सीधे पंचपरमेष्ठी से सीखने का, 
घोर साहस करते हैं 
इसे स्वरचित शब्दों से देखने का।  

हे अरिहंत! मुक्ति दो 
मन की जटिल गुंथन से
काया की वजनी जकड़न से ।

हे सिद्ध! भर दो 
उत्तमक्षमा को चित्त में ह्रदय में प्राण में।    

हे आचार्या! शक्ति दो 
स्वयं को क्षमा कर पुनः आत्मविश्वास धरूं।

हे उपाध्याय ! शक्ति दो
दूजों को क्षमा कर पुनः विश्वास कर उन्हें वरदान दूं।

हे मुनि! शक्ति दो 
विषण्ण क्रोध के पीढ़ीगत प्रतिरूप से 
स्वयं को वंशजों को चिरस्वतंत्र करूँ।  

Friday, August 12, 2022

अमर प्रेम

Published/Copyrighted: https://sahityakunj.net/entries/view/amar-prem

अमर प्रेम 

लोग कहते हैं मैं बदल गई 
मेरे शोले से प्रेम की अग्नि 
तीली की ज्वाला सी ढल गयी।   

हाँ सही तो है 
मैं बदल गयी,
पर बदली नहीं मैं आज 
बदली थी जब 
है वह डेढ़ दशक पहले की बात।   

तुझसे बिछड़ने से पहले
कंठ में अकाल सा पड़ा था
पर इस जिव्हा को 
तेरे उपनामों की चाशनी सहला रही थी।  
कुर्सी को सीधा करने के प्रयत्न में 
छू रही थी मैं आसपास के बटन
पर इस चर्म से 
तेरे स्पर्श की ही खुशबू  रही थी।   
गूंजा तो था 
कुर्सी की पेटी बाँधने का सन्देश
पर इन कानों को 
एक बारम्बार धुन सता रही थी।
जहाज के उड़ान भरते ही
कम हुयी थी आसपास की हवा
पर इन साँसों में  
तुझसे उठती एक कम्पन समा रही थी।    
जब तक दिख रहे थे तुम 
उस रोशनदानी खिड़की से 
यह आखें अश्रुवर्षा से 
केवल प्रेम बरसा रही थी।    

कैसे समझाऊं कि 
मैं क्या 
मेरी तो हर इन्द्रिय ही बदल गयी थी।   

यहाँ परोसे जा रहे 
मुझे मेरे ही धर्म के 
कटु अपक्क से चित्र,
पर मैं उपजती जाऊँ  
सरस आस्थाओं से पोषित 
एक पवित्र चरित्र, 
चख जो सकती हूँ
पुण्य पंथ की मिठास को।     

छेड़े जा रहे 
जातिवाद के आरोप बारम्बार,
पर मैं करती जाऊँ
मात्र मानवता की वंशावली का विस्तार
छू जो सकती हूँ
पूर्वजों की कीर्ति रश्मियों को।     

ललकारते जा रहे  
कोलाहलमय कट्टरता के आरोपण,
पर मैं चुपचाप रचती जाऊँ
एक प्रगतिशील उदाहरण,
सुन जो सकती हूँ
बढ़े चलो की पुकार को।  

हवाओं में है 
बोलचाल की शैली की ठिठोली
पर मैं जलाती जाऊँ
बहुभाषिता में निहित संघर्षों की होली, 
सूंघ जो सकती हूँ
सुबाड़वाग्नि की सुगंध को।   


घूरे जा रहे 
नारी के विरुद्ध पक्षपात के अभियोग
पर मैं दर्शाती जाऊँ 
सशक्त स्वतंत्र स्री का योग
देख जो सकती हूँ 
हिमाद्रि पर बैठी स्वयंप्रभा समुज्ज्वला को।   

और कैसे समझाऊं कि 
मैं क्या 
मेरी तो हर इन्द्रिय ही बदल चुकी है।  

प्रेम पर संदेह था 
तो पुनः आती हूँ इस भाव पे
यूँ बसा चलती हूँ 
तुझे हर हाव भाव में,
कि हर कोई पूछ बैठे 
क्या अभी अभी आयी हो 
बैठ किसी तिरंगी नाव में।  
मेरे जन्म पर ही झटके से तोड़ा था
उस नौमासी गर्भनाल को,
पर अंतिम शैय्या तक ले जाउं 
तुझ संग जुड़े इस जीवंत तार को।     
वह अपूर्व प्रेम फीका पड़ जाए 
देख तुझ संग प्रीत के राग को,
एक दिन अवश्य बुझेंगी 
तेरे विरुद्ध सतही विश्वधारणाएं 
देख मेरी भक्ति की आग को।  

इस पंद्रह अगस्त
चाहूँ मैं भी स्वतंत्रता 
मुझ पर भिन्नता के आरोप से 
मेरे बदल जाने के जनप्रकोप से।
नहीं समझ पाऊं कि लोग  
मुझे भिन्न खिन्न होता देख 
यूं जश्न क्यों मनाते हैं
कहते हैं दूरी प्रेम बढाती है,
फिर मेरे देशप्रेम पर प्रश्न क्यों उठाते हैं

अगले बरस जो फिर दिखूं मैं 
थोड़ी और बदली बदली सी,
पढ़ लेना मेरी भी पृष्ठकथा 
एक धीरा समझ के
या चाहो तो भिड़ लेना मुझसे 
एक प्रवीरा समझ के
या छोड़ देना मुझे मेरे हाल पर
हर बरस मात्र एक दरस को तरसती
एक मीरा समझ के।   

 

पृष्ठभूमि:
देश को विश्व के कण कण में बसाने वाले 
देश की संतानों के विरुद्ध विश्वव्यापी पूर्वधारणाएं तोड़ने वाले
हर प्रवासी के लिए मेरा "अमर प्रेम"
जय हिन्द! 

सन्दर्भ: 
१. https://www.hindikunj.com/2021/08/himadri-tung-shring-se-poem.html 
२. http://purishiksha.blogspot.com/2018/09/bcom-1st-year-hindi.html
३. https://en.wikipedia.org/wiki/Anti-Indian_sentiment 

४. https://www.asianstudies.org/wp-content/uploads/breaking-free-reflections-on-stereotypes-in-south-asian-history.pdf

५ . https://www.diversityinc.com/six-things-you-should-never-say-to-south-asian-americans/ 

६. https://www.amazon.com/Stereotype-Global-Literary-Imaginary-Literature/dp/0231165978