Monday, February 12, 2024

नई नवेली प्रेमिका

 नई नवेली प्रेमिका 


एक छवि परछाई सी
पूछ उठी सकुचाई सी
क्या तुम्हे मुझसे प्रेम है?

मैं ना छवि ना कवि
केवल एक लठ्ठमार अजनबी 
कह दिया - 
इतना प्रकट प्रश्न उठाया है
स्पष्टवक्ता तो तुम अवश्य हो,
पर प्रेम का प्रश्न तो दूर 
दर्पण देखो तो जानोगी
तुम एक भयानक दृश्य हो।

अतिलज्जित वह 
सीधे पहुँची शीशमहल के द्वार
थे दर्पण दर्पण हर दीवार,
अलग अलग मुद्राओं में
लिए रेतघड़ी आकार 
खड़ी थीं परमसुन्दरियाँ 
स्वयं को निहार।
होड़ में उसने भी
ढूँढा एक अयुगल,
अनायास ही बोल पड़ा
वह उत्तल, 
बनना है प्रेम के योग्य 
तो कर लो केवल यह दो काम -
करके कसरत हर अंग
तोड़ दो लव हैंडल्स की पगार, 
केश नख पर लेप बहुरंग 
ओढ़ लो आधुनिक वस्त्रालंकार।  

चंद माह में थी मानो 
एक रूपवती तैयार, 
अवतल अवतल बोल उठा
नज़रों से बचना इस बार। 
नयी छवि में कर श्रृंगार 
पुनः आ गयी मेरे द्वार - 
बोली अब कर ही लो स्वीकार!
पर मैं अब भी ना छवि ना कवि
कह दिया -
काया तो पलटी सी है
पर छाया अब भी ढलती सी है,
माना कि सविराम उपवास
योगाभ्यास कर आयी हो,
पर ना जाने क्यों
पुनः नहीं भायी हो,
माना कि भरपूर किया
धन व्यय बाजार भूषाचार,
पर स्वीकारना ही होगा
पुनः मेरा अस्वीकार।

छन से टूटी 
वह पराजित बेहाल 
पर अकस्मात् सुनाई पड़ी 
कहरवा सी ताल, 
समक्ष था एक दर्पण गुलाल 
जाना पहचाना था आकार
चार थे खंड 
और बोल गया बस यह दो छंद - 

चाहती है
प्रेमिका का ताज,
पर है मात्र दूजों की
पुष्टि अनुमति स्तुति की मुहताज, 
जाने क्यों
दूजों के मन में उतर कर
स्वयं की छवि सुधारती है,
क्यों ना पहले उतार ले 
स्वयं की वह परतें
जो बेहद बनावटी हैं। 
हाँ! यह आतंरिक कार्य
है कसरत दण्ड से
कहीं अधिक दर्दनाक,
पर विशुद्ध रूप हेतु
कायापलट नहीं 
अपितु चाहिए पुनरुत्थान। 
 

चाहती है
प्रेमी का पूरा ध्यान, 
पर है 
स्वयं से पूर्णतः अनजान,  
जाने क्यों दूजों से 
स्वयं को देखने सुनने
समझने की भिक्षा मांगती है, 
क्यों ना पहले अपने
आतंरिक अंधकारों में झांकती है।
 हाँ! यह आतंरिक सैर
है प्रसाधन से अधिक कष्टकार,   
पर है संसार का सबसे
बहुमूल्य आभूषण - आत्मसाक्षात्कार।  


हर प्रस्तावी प्रश्न
स्वयं से ही उठाया था 
हर उत्तर में स्वयं को ही 
अक्षम्य पाया था।  
छवि और अजनबी 
दोनों तू ही है, 
क्योंकि स्वयं से अजनबी 
भी तू ही तो है।  
मोलभाव में महारथ 
फिर स्वयं को
इतना कम क्यों तोलती है

वचन वर्णन में विशेषज्ञ 
फिर स्वयं से
इतना कम क्यों बोलती है?

स्वयं की अवज्ञा
भटक दर्पण दर्पण,
अंतस तक भर लिया
एक घृणित दुर्वचन।  
आज देना
बस एक वचन -
स्वयं को 
देख लेना जी भर के 
सुनना जमा सारा ध्यान,
समझना बिन धारणा
रखना हर भाव का भान,
और स्वयं को
स्वयं ही दे देना  
एक नई नवेली प्रेमिका सा मान। 

पृष्ठभूमि:

इस वेलेंटाइन दिवस
चलो पलट पटल देते हैं,  
इस बदलते हुए युग में 
हम भी प्रेमी बदल लेते हैं।  

Copyrighted/Published: https://sahityakunj.net/entries/view/nai-naveli-premikaa

सन्दर्भ:
१. A Radical Awakening: Turn Pain into Power, Embrace Your Truth, Live Free, Shefali Tsabury 

२. Power: A Woman's Guide to Living and Leading Without , Kami Nekvapil 

Background Photo credits:

https://www.artstation.com/artwork/Pknb1


Monday, January 29, 2024

प्रथम स्थान

 https://www.instagram.com/p/C2pkMW2gRfl/


https://sahityakunj.net/entries/view/pratham-sthaan

हर यम द्वितीया 
बस यूँ ही खा लेते हैं 
दो रुपए के बताशे और 
एक कलम की सौगंध,
कि हाँ!
एक दिन हम भी लिख जाएंगे
एक बिकने वाला छंद। 
विगत बरस थी सूनी दिवाली
और सूखा सा दवात पूजन, 
बस कलम की प्रतिक्रमा में
घूम रहे थे गत जीवन के चार चयन।  

दादी माँ ने घंटों तक 
हर एक पंक्ति को सराहा था, 
विक्रयी से भी ऊंचे स्वर का 
एक ढिंढोरा मारा था। 
ले जो आया था 
मेरा दसपंक्तीय कोआन 
जीवन का प्रथम प्रथम स्थान। 
 
एक छोर ढिंढोरा 
तो दूजी ओर
जैसे बंसी से खिंचती
एक मोहित मीरा,
यूँ संक्रय कर जाती थी
नवरसों की सरिताएँ,
गतिमय भेंट जाती थी  
सौ सौ शतपंक्तीय कविताएँ। 

गति का तीजा नियम ही था   
बन जाना दुर्गति समान,  
रुक कर देखा तो
कलम थी निशब्द 
और कागज़ जैसे रेगिस्तान। 
पर जन्म से किया बस लेखन   
तो जन डाले 
नए प्रयोग नई शालाएँ, 
कलम तो बस एक साधन
तो भर डाली नई स्याहियाँ नई मुद्राएँ। 

कवियों की लिखावट से
मण्डियों की दिखावट से
आ ही गयी कलम मेरी तंग, 
अकस्मात् हुई कमानी सी खड़ी
और स्वयं लिख डाला एक रक्तरंजित छंद - 
कि तुम्हें मेरी सौगंध!
यदि बनना है सत्य में कवि से कविवर तो 
पुनः सुना दो 
देश को सोनचिया की चहक 
पितृगणों को वाहवाहियों की खनक,
निःशुल्क दिला दो   
मातृभाषा को मूर्तितल चरम
और काव्य को वही 
स्थान प्रथम। 

#हिंदी #hindi #poetry #hindikavita 

सन्दर्भ: काव्य संकलन "मेरे सूरज का टुकड़ा" में प्रकाशित https://www.amazon.in/dp/B0C4QHLB18/ 

पृष्ठभूमि: 
मेरे प्रथम काव्य संकलन को मिला
अखिल भारतीय कला मंदिर के वार्षिकोत्सव में "साहित्य कला रत्न सम्मान" 
और संग ही प्रस्तुत है मेरी रचना "प्रथम स्थान" 

Thursday, August 31, 2023

खाना तो खा ले

कवि सम्मलेन :
चाहे देश कोई भी हो, आज के माता पिताओं की एक शिकायत होती है कि हमारा बच्चा खाना नहीं खाता , तो इस ही भावना पर आधारित है मेरी छोटी सी कविता, 
और कविता का शीर्षक है   

खाना तो खा ले 

आजा मेरे कान्हा
थोड़ी सेहत बना ले,
तेरी व्यग्र व्याकुल यशोदा
निशिदिन यही पुकारे
खाना तो खा ले
खाना तो खा ले।
 
खा ले यह रोटी दाल संग
लौकी पालक की सब्ज़ी,
देख ले संग संग
पॉ पैट्रॉल कोकोमेलॉन
यह अतरंगी सा ब्लिप्पी।
खा ले ककड़ी गाजर मूली
कर ले सारे फलों का आहार,
देख ले संग संग
यह है माँ का मनभावन
दुरुस्त तंदुरुस्त अक्षय कुमार।
 
मैं आज की व्यस्त माँ,
मेरी रसोई में
इलेक्ट्रॉनिक्स का इत्र समाया,
कोना कोना
श्वेत-श्याम चार्जरों से सजाया।
थाली सफाचट कर डाले
मेरा मोहन धर मौन,
मेज़ है खाने की
पर मुख्य पात्र
यह चिकना टीवी
मेरा चतुर सा फोन।
 
हाय! शोधकर्ताओं ने सिखाया
यह कैसा चिंताजनक विज्ञान,
स्क्रीन संग भोजन करे
बोली भाषा काया
मानस तक का घोर नुक़्सान।
बस आज से बंद मनोरंजन
ली है मैंने ठान,
थाली फिर भी होगी सफ़ाचट
यूँ भरूँगी मनमोहन के मन में
पौष्टिक भोजन का ज्ञान।
 
मैं आज की शिक्षित माँ
स्क्रीनमुक्त मेरा रसोईघर,
मेज़ है खाने की
और मुख्य पात्र
यह पौष्टिक भोजन।
पर नहीं चला
मेरा तुरूप पत्ता
व्यर्थ हुई हर फ़रियाद,
धरी पड़ी हरी सब्ज़ी
काले पड़े फलों के सलाद।
हमारा बच्चा खाना नहीं खाता
आज हर दिशा से
यही शिकायत आती है,
सच कहूँ तो
खाना खिलाने की कल्पना से
धुरंधरों को भी नानी याद आ जाती है।
 
नानी से याद आया—
उन गर्मियों की छुट्टियों में
कुछ इस तरह खिलाती थी
हर पहर मैं एक रोटी
अधिक ही खाती थी।
वह अतिव्यस्त थी सुशिक्षित थी
पर उन अमूल्य क्षणों में
सारा ध्यान मुझ पर जमाती थी,
जिस विषय पर कहूँ
एक मनगढ़ंत कहानी सुनाती थी।
स्वयं को परिवेश को भूल
एकटक बस मुझे निहारती थी
देख मुझमे मेरी माँ की छवि
अकारण ही गर्व से गद्‌गद्‌ हो जाती थी।
तब भी मेज़ थी खाने की
पर मुख्य पात्र केवल और केवल मैं थी।
 
आज हर गोकुलपुत्र
कभी तुतलाता
तो कभी व्यक्त न कर पाता,
पर करता बस यही पुकार,
नहीं चाहिए कोई पीज़्ज़ा बर्गर
ना कोई कार्टूनी किरदार।
चंद क्षणों के लिए
भूल जा शोधकार्य का प्रवचन
छोड़ दे इलेक्ट्रॉनिक्स की मधुशाला
रोक दे व्हाट्सएप्प का आगन्ता तूफ़ान,
बस बैठ जा मेरे संग
हो जा इस मेज़ पर उपस्थित
जमा दे मुझ पर सारा ध्यान,
सुन ले मेरे दिन का हाल
कितना अद्भुत था
वह नए मित्र संग खेल,
कितना कठिन था
वह गणित का सवाल।
तेरे बिन बोले
“खाना तो खा ले“
बिन विनती बिन डाँट,
जो परोसेगी खा लूँगा
माखन सरीखा
अंगुलियाँ चाट चाट।

कॉपीराइट: 

१."मेरे सूरज का टुकड़ा" काव्य संकलन में प्रकाशित https://www.amazon.in/dp/B0C4QHLB18/
२. https://m.sahityakunj.net/entries/view/khaanaa-to-khaa-le

सन्दर्भ 

१. https://www.youtube.com/watch?v=aZ17_onC0Ug
२. https://simona-hos.medium.com/do-you-watch-television-while-eating-then-i-have-bad-news-for-you-a297713ff1bf
३. https://www.cnet.com/health/is-it-really-that-bad-to-watch-tv-or-scroll-on-your-phone-while-eating/

पृष्ठभूमि: 
टीवी/फ़ोन देखते देखते खाना खाने और खिलाने की विषैली आदत से चिंतित
जन्माष्टमी के पावन पर्व पर प्रस्तुत मेरी नयी कविता
और कविता के मध्य के एक छंद में खाना खिलाने वाली नानीमाँ को एक छोटी सी श्रद्धांजलि 

फोटो क्रेडिट्स: https://www.megapixl.com/kid-watching-tv-illustration-9314687

Tuesday, August 1, 2023

मित्र-मंथन

मन के समुद्र-तट पर
एक गढ़ी रेत से सनी-
कि चाहे रहूँ दरिद्र
या बन जाऊँ धनी, 
पर हो मित्रों की
अनेक मण्डलियाँ ठनी, 
और हर एक मण्डली हो
कुम्भ के मेले सी घनी। 

वरुण कृपा से बैठे बिठाये 
मिल ही गए थे
जाने कितने मनमोहक सखी सखाएँ-
 
किसी ने गुदगुदी की लहर उठा दी थी, 
तो किसी ने निःशर्त स्नेह की भोर जगा दी थी, 
किसी ने जाति उम्र लिंग की सीमा हटा दी थी, 
तो किसी ने सांसारिक शोभा की भँवरी बना दी थी, 
और किसी ने डूब डूब कर प्रशंसा की पुलिया सजा दी थी। 

  
पर धीमे धीमे
वरुणी की शक्ति रिस रही थी, 
मैं अब भी बैठी थी पर समक्ष
सृष्टि कुछ अलग ही दिख रही थी-
  
परिहास के भेष में उपहास खड़ा था, 
एकपक्षीय मैत्रियों का जाल खड़ा था, 
निजी सीमाओं का अपमान खड़ा था, 
अस्वस्थ दबावों का अभिप्राय खड़ा था, 
और सबसे अधिक दुखदाई, 
व्यंग्य भरी प्रशंसा लिए ईर्ष्या का नाग खड़ा था। 

 

नहीं जानूँ कि है यह 
ईश्वर प्रदत्त कृपा या दण्ड-
कि हर मोहभंग की कथा 
है शब्दशः कंठस्थ, 
हुई थी आतंरिक रूप से
खंडित अस्वस्थ, 
फिर भी जाने कैसे 
विषाक्तता के मध्य भी
हूँ जीवित कायस्थ? 


जिज्ञासु मैंने तोड़ ही डाले
सारे ताले मनकपाट के, 
फिर जाना कि
सर्प से बचती पिसती
अनजाने में
पर्वत हिला आयी हूँ घाट घाट के, 
और वर्षों के मंथनों से
अल्प अदृश्य रत्न
समेट लायी हूँ छाँट छाँट के-
  
जो मेरा विशुद्ध रूप समक्ष ले आते हैं, 
संकटकाल में साया बन जाते हैं 
निजी मंथनों को समानुभूति से सुन पाते हैं, 
अध्यात्म की राह दिखाते हैं, 
और अधिक महत्त्वपूर्ण-
मेरी छोटी बड़ी सिद्धियों का
मन की गहराई से उत्सव मनाते हैं। 

 

हाँ! हैं गिने चुने 
एक भी मण्डली नहीं हैं, 
पर हर एक में 
मानो एक सम्पूर्ण कुम्भसभा सजी है-
जो मेरी ऊपरी परतों को हटा 
स्वयं से साक्षात्कार करवा रही है, 
जीवन अवरोह पथ पर
मुझपर निर्झर अमृत बरसा रही है। 

सन्दर्भ: 

१. 5 Types of Friends, Gaurangdas, https://www.youtube.com/watch?v=L1Me2Zsih4M २. https://www.rudraksha-ratna.com/articles/samudra-manthan-story ३. https://slis.simmons.edu/blogs/naresh/2014/03/08/the-story-of-samundra-manthan-the-churning-of-the-celestial-ocean-of-milk/ 

पृष्ठभूमि :
वह ज्वार-भाटे से जूझती हर मित्रता
किसी तपस्या के असम ना थी, 
मित्रमोह में लिखी हर पंक्ति
लहू से लिखे प्रेमपत्र से कम ना थी।  

९ विद्यालयों २ महाविद्यालयों ५ संगठनों में मिले
जाने कितने संगियों को समर्पित मित्रता दिवस पर मेरी नई रचना 

फोटो क्रेडिट्स: 
https://www.mukeshsharma.com/painting/samudra-manthan/ 

कॉपीराइटेड: 
https://sahityakunj.net/entries/view/mitra-manthan



Thursday, June 22, 2023

सातवाँ मौसम

 सातवां मौसम 

मौसम के समाचार से
बेखबर बेसुध, 
एक कांच के बुलबुले में 
बैठी जैसे कोई बुत। 

पीले गेरुए के
मध्य का रंग
पत्तियों का एक युगल
मानो युग युग का संग,   
अनायास यूँ  
उड़ आया मेरे पास,
जैसे चर्म फेंक कर 
आ बैठी दबी हुयी एक आस। 
और मैं -
चावल सी खिली थी  
खीर की मिठास से, 
चाँदनी सी धुली थी  
शरद के पूर्णमास से।  

जोड़े को संग बाँध रहा
एक 
ऊनी गुलाबी गोल,
धुएं के संग संग
निर्गम करता
पिघलाने वाले बोल, 
और मैं -
बर्फ सी चमकी थी
रूप से स्वरूप से,
सोने सी दमकी थी 
हेमंत की धूप से। 

ऊन की डेरी 
बिखर बनी 
पतंगों की डोरियाँ, 
निःस्पर्श खींच रही
हरियाली की लोहड़ियाँ
और मैं - 
उस भावुक क्षण में जमी थी
शून्य से नीचे गिरते पारे से,  
अंतस तक थमी थी 
शिशिर के शीतल आरे से।  

ओरिगेमी से पतंग
मुड़ मुड़ कर बनी
रंगीन फूलों की लड़ी,  
नदियों का मिलन 
दे गया आत्मीयता की कड़ी,  
और मैं - 
सरसों सी लहरायी थी 
कोकिल की फनकार से, 
सोलह सी इठलायी थी  
बसंत के श्रृंगार से।  

फूल फूल पर
राहत से बैठे   
छुट्टी वाले खेल,
खुली छत मन छेड़े 
वह ठंडी रात बेमेल।   
और मैं - 
सुबह सी सधी थी 
फलरसों के प्रकाश से, 
पुनः जीवन से भरी थी 
ग्रीष्म के अवकाश से।     

खेलों ने लड़ भिड़ कर
तोड़ी बांधों की तान,
पानी पानी करती 
एक इंद्रधनुषी मुस्कान।  
और मैं - 
नज़रों से बची थी
बादल के अंजन से,
मिट्टी के इत्रों से सजी थी  
वर्षा के अभिव्यंजन से।

वह छह ऋतुएँ थी 
एक पल के समान 
एक अंकुशित साहिल
के जल के समान।  

और ... 

अब वही छह ऋतुएँ 
एक सदी के समान, 
समुद्र खोजती विषाद में सूखती 
एक नदी के समान।

और मैं -  
एक कागज़ की नाव 
अश्रुवर्षा में भीगी
ढूँढ रही एक छोर, 
यह दलदली यात्रा 
जितनी कठिन उतनी कठोर।  

और उस पर 
निरुत्तर अकाल का वार 
मानो हो एकतरफा प्यार,  
अनंत तपस्या, अनंत त्याग 
ग्रीष्म से गहरी विरह की आग।  

फिर बसंत की उलझन संग 
धूल में ओझिल होती 
वही सदी पुरानी आस,
ना कलकल ना कोयल 
बस सुनने में आती
रुकी रुकी सी साँस।  

शिशिर की डोरी सी
थी सिमटी सिमटी
रग रग से,
बिखरने की ललक थी 
पर कांधा ना मिला
जाने कब से।  
फिर कड़ाके की ठण्ड 
उस पर कोहरा अनंत
हेमंत न हुआ
हुआ जीवन का अंत।  

और यह शरद तो 
जैसे हो कोई अमावस 
सुई हिलाये जाऊँ 
पर धागा जस का तस।  
और मैं बस 
ढूँढ रही
वही बीच का रंग, 
एक अंतिम पत्ती 
जिस पर लिख डालूँ
एक अंतिम रक्तरंजित छंद। 

हे ऋतुराज!
अब बस
एक सातवें मौसम का इंतज़ार, 
जो ना मुझे रिझाए 
ना दे कोई उपहार, 
जिसे ना मैं रिझाऊँ 
ना करूँ अपलक निहार, 
बस हो एक संयम एक समभाव,  
फिर हों ऐसे दो जन्म 
कि सहजतः मन जाए
एक जीवंत त्यौहार।

पृष्ठभूमि: अठखेलियों से संजीदगी तक की अनगिनत ऋतुओं से होती हुई यात्रा - मेरी नयी रचना "सातवां मौसम"

कॉपीराइट: 
1."मेरे सूरज का टुकड़ा" में प्रकाशित https://www.amazon.in/dp/B0C4QHLB18/ 
2. https://sahityakunj.net/entries/view/saatavaan-mausam
फोटो क्रेडिट्स: http://www.sutrajournal.com/the-six-seasons-part-three-by-freedom-cole 

Thursday, June 8, 2023

प्लीज़! हैंडल विथ केयर

 छुई मुई सी लगती है 

बिन छेड़े पिनकती है,
भावनाओं की बदली बन 
बिन मौसम बरसती है।  
तेज़ रोशनी ऊँचे स्वर से 
तंग तंग सी फिरती है,
दूजों द्वारा संचालित
परतंत्र पतंग सी उड़ती है। 

संगत इसकी ऐसी है कि
घुटन भरी सी लगती है,
साँस जिव्हा चाल हमारी

संभल संभल कर चलती है। 
एक अनाम पत्र लिखने को 
यह अंगुलियाँ तरसती हैं -   
या तो चमड़ी मोटी करने की 
शल्यचिकित्सा करवा लो 
या "प्लीज़! हैंडल विथ केयर"
का मस्तक पर टैटू खुदवा लो! 

ढीली टिप्पणियों के मध्य 
कमल सा विराजमान,
मात्र ढाई दशक पुराना
एक कसा हुआ विज्ञान -
कुछ चयनित का तंत्रिका तंत्र
है मूलतः असमान, 
सौ में से मात्र पंद्रह हैं 
अति-संवेदनशील इंसान। 

किसी कक्ष में घुंसते ही 
जब दूजों को दिखती हैं
मेज़ कुर्सी
 ताखाएँ, 
इन चयनितों को दिखती हैं 
मित्रता शत्रुता सूक्ष्म मनोदशाएँ 
सज्जाकार के व्यक्तित्व की विशेषताएँ। 

हाँ! अतिउत्तेजना से
दूजों की अपेक्षा जल्दी थक जाते हैं,  

पर अतिअवशोषण से 
दूजों से चूका नकारा
सहजता से ग्रहण कर पाते हैं,
अकसर रूचि के क्षेत्र में 
प्रथम अन्वेषक बन जाते हैं,
समानुभूति से
प्रतिध्वनित नेतृत्व दिखलाते हैं
और अनायास ही
अपवादक नायक कहलाते हैं। 

यह संवेदना की प्रवृत्ति 
है वास्तव वंशगत 
और पूर्णतः स्थायी सामान्य। 
क्या निजी तौर पर 
जानते हो कुछ ऐसे भावपूर्व इंसान?
तो समझना स्वयं को थोड़ा भाग्यवान 
क्योंकि शोधकार्य से है सिद्ध -
इन अल्पसंख्यंकों के बलबूते ही 
कार्यस्थल फलते हैं 
मित्रमण्डल निर्विघ्न चलते हैं
परिवार में रचनात्मक समाधान निकलते हैं। 

और यदि कहीं तुम ही हो
उन 
पंद्रह में एक गैर,
तो आओ चलो करवाते हैं 
आत्म संदेह से आत्म स्वीकृति की सैर। 

भूतकाल के सुप्रसिद्ध 
अविष्कारक प्रवर्तक कलाकार,
तुम जैसे ही थे जिनमें थी 
रचनात्मकता अनुराग,
अंतर्दृष्टि के संग संग था
देखरेख का भाव,
मृत्युकालिक अपिरिचित से
कुछ चर्चा का चाव। 
 

पर विडंबना
कुछ ऐसी है आज, 
कि जहाँ देखो वहाँ 
योद्धाओं का राज,
इन परामर्शदाताओं को
रत्ती भर ना पूछे यह कुपोषित समाज। 

मगर तुम्हे तो
सारी जानकारी है,
यह जो सर्वव्यापी असुरक्षा 
थकावट भूख बीमारी है,    
तुम्हें तो सबकुछ दिखता है 
यह जो सामाजिक अचेतन से
अभ्यन्तर जीवन में रिक्तता है। 
तुम्हे तो स्वतः है
भविष्य का भान, 
जन्मजात सज्जित हैं
तुम में 
अशक्त जीवों के 
संकटों के समाधान। 

तो करनी होगी तुम्हें
मानव सभ्यता की पावन प्रस्तुति,
और दिखानी होगी 
योद्धाओं के मध्य
पुरोहित की गहन 
उपस्थिति
मनाना ही होगा 
इन प्रतिभाओं 
का महात्यौहार, 
मिला जो है यह 
संवेदनशीलता की
महाशक्ति का दुर्लभ उपहार।  

तो गर्व से कर लेना
स्वयं को स्वीकार,
कर्त्तव्य से कर लेना 
स्वयं का अलंकार,
कुछ भी हो 
ढूँढ ही लेना 
एक योग्य रोशनी उचित स्वर,
और स्वयं को कर ही लेना
"प्लीज़! हैंडल विथ केयर"।


सन्दर्भ: "The Highly Sensitive Person: How to Thrive When the World Overwhelms You" - Dr Elaine Aron 


पृष्ठभूमि:
दुनिया के लगभग १५% लोग "अति-संवेदनशील" (highly sensitive) होते हैं।
डॉ. इलेन ऐरन के शोधकार्य से सिद्ध हुआ है कि इन अल्पसंख्यकों का तंत्रिका तंत्र कुछ अलग प्रकार से रचा गया है।  
World Empathy Day पर प्रस्तुत है मेरी नयी रचना - "प्लीज़! हैंडल विथ केयर"

Copyright: https://sahityakunj.net/entries/view/please-handle-with-care  

Photo credit: https://www.simplypsychology.org/highly-sensitive-persons-traits.html
  

Wednesday, January 11, 2023

कहाँ तक पढ़े हो?

 कहाँ तक पढ़े हो?


साक्षात्कर्ता का
सरसराता पहला सवाल -
संक्षिप्त में बताइये
कौन हैं आप नौजवान?
नमस्कार! शुभ प्रभात
मुझसे मिलिए - 
मैं इस सदी का "सुशिक्षित" इंसान।   
दूजे प्रश्न संग पेंचीला निहार -
अब शिक्षा की परिभाषा का
यूँ कीजिए विस्तार,
कि स्पष्ट छन जाए
कि कौन पढ़ा-लिखा सुशिक्षित
और कौन अनपढ़ गँवार। 

इस पर्वतीय प्रश्नद्वय से 
मैं निरुत्तर बेचैन,  
पर दो पर्वतों के मध्य से
जैसे सूर्य सी उगती
एक तस्वीर पर ठहरे नैन।
सदी पुराना दूत
आज भी सर्वभूत,
लघु-महा विद्यालयों में
कार्यालयों पुस्तकालयों में,
राजपत्रों सुविचारों में
सोशल मीडिया की दीवारों में।
विचार श्रृंखला टूटी
तो था शृंग सा ऊंचा उजाला
अवचेतन मन से
यह सजा सजाया उत्तर दे डाला - 

शिक्षा के अर्थ से पहले 
समझना होगा धर्म का भावार्थ,  
क्योंकि धर्म ही है 
शिक्षा का साधक आधार,  
और असली धर्म है 
अध्यात्म में अनुभूति में,
इंसान में निहित 
देवत्व की अभिव्यक्ति में।  
हर जीव में जन्मजात विद्यमान - 
हैं सारी शक्तियाँ समग्र ज्ञान
इस भाव की जागृति ही असली शिक्षा है, 
है योग्यता प्रवृत्ति सामर्थ्य अपार 
इस निपुणता की अभिव्यक्ति ही असली शिक्षा है। 

सुशिक्षित का पहला चिन्ह 
विकर्षणों से पूर्णतः विछिन्न
एकाग्रता का ऐसा कौशल
जैसे अग्नि सर्जन करता उत्तल। (१)

सोचने का सामर्थ्य 
है दूजा संकेत 
अतः स्वतः सुगमता से जाने 
उचित अनुचित में भेद।  (२) 

अनगिनत योजनाएँ 
जनना है तीजा लक्षण, 
किन्तु अनेकों में अल्प को चुन
समर्पित सम्पूर्ण जीवन।  (३) 

चौथा प्रतीक, हर पाठ का
वास्तविकता में प्रयोग,
स्वयं की समस्याओं का हल
स्वयं ही खोजने में सुयोग्य।  (४) 

मात्र एक जीवन ध्येय 
है पाँचवा निशान,
उपरोक्त शिक्षा की ललक 
शूर का साहस परोपकार चरित्र निर्माण,
अधिक महत्वपूर्ण  - 
हो आलोचना या प्रशंसा
हो लक्ष्य कृपालु या चिंतित,
हो देहांत आज या सदी में
न्याय पथ से कदाचित नहीं विचलित। (५) 

उत्तर सुन प्रश्नकर्ता 
पूर्णतः प्रभावित निशब्द, 
हर ओर से बरसे 
वाहवाहियों बधाइयों के शब्द! 

फिर भी जाने क्यों
रात बेचैनी
घर कर आई थी,
निराकार एक अंदर से
बाहर को चल कर आई थी।
संयोग से पूछ बैठी
वही दो सवाल
बस अंतर इतना कि 
भाषा थी अति आसान - 

शिक्षा की सीमा को देखो 
देख सकते हो जहाँ तक,
फिर सोच कर बताओ
तुम पढ़े हो कहाँ तक? 

शिक्षा - 
मेरी बुद्धिमता का चित्रण 
आजीविका का साधन। 
शिक्षा की सीमा - 
कक्षा अध्यापन डिग्री से लेकर 
परीक्षा प्रतिस्पर्धा पदवी तक। 
शिक्षा और धर्म में 
नहीं दिखता कोई सम्बन्ध,
पर मेरी धार्मिकता के
प्रमाण हैं अनंत -
धर्मरक्षक ध्वजधारक मैं 
वेद पुराण कंठस्थ,
बैठक कक्ष में 
सोशल मीडिया पर 
तर्क कुतर्क ज़बरदस्त,
मतभेद में 
निःसंकोच दुर्वचनी मैं 
अन्य धर्म जो हैं भ्रष्ट।  

मन के हर कक्ष में
तथ्यों की ढेर सजी है,
ध्यान को पांव धरने की
जगह ही नहीं बची है।  (१) 

यूँ तो मैं बहुआयामी 
विचारक कलाकार वयस्क,
पर सही सोचने की कला में
कुल जोड़ शून्यमयस्क। 
(२)  

योजनाएँ मौलिक ना सही 
पर हैं सौ से अधिक समस्त, 
और उतनी ही दिशाओं में 
मैं गर्व से अतिव्यस्त
। (३) 

निशिदिन श्रवण पाठन 
सुविचार प्रवचन दोहे पुरजोश,
किन्तु यथार्थ के    
हर संकट में संघर्ष 
हर दशा में असंतोष। (४) 

अध्यात्म अंशदान कल्याण 
तो लगते विदेशी से व्यंजन,
जीवनध्येय मात्र एक
मनोरंजन मनोरंजन मनोरंजन। (५) 

नमस्कार! पुनः शुभ प्रभात 
मुझसे मिलिए - 
मैं इस सदी का पढ़ा लिखा गंवार, 
पर गुरुकुल जाने की आयु
तो कब ही हुई है पार!     
अब बस एक चाह
कि कर जाऊँ 
एक प्रतिमा का निर्माण,
"उतिष्ठत। जाग्रत। 
प्राप्य वरान्निबोधत।"   
पर धर पाऊँ कुछ ध्यान, 
एक सदी में ही सही 
पर सत्य में बन जाऊँ
एक सुशिक्षित इंसान।  

सन्दर्भ: "My Idea of Education" by Swami Vivekanand  
Published/ Copyrighted : https://sahityakunj.net/entries/view/kahaan-tak-padhe-ho 
Background  Photo  credit: https://www.culturalindia.net/reformers/vivekananda.html 
पृष्ठभूमि: भारतवर्ष के राष्ट्रीय युवा दिवस पर मेरी नई रचना