Thursday, June 22, 2023

सातवाँ मौसम

 सातवां मौसम 

मौसम के समाचार से
बेखबर बेसुध, 
एक कांच के बुलबुले में 
बैठी जैसे कोई बुत। 

पीले गेरुए के
मध्य का रंग
पत्तियों का एक युगल
मानो युग युग का संग,   
अनायास यूँ  
उड़ आया मेरे पास,
जैसे चर्म फेंक कर 
आ बैठी दबी हुयी एक आस। 
और मैं -
चावल सी खिली थी  
खीर की मिठास से, 
चाँदनी सी धुली थी  
शरद के पूर्णमास से।  

जोड़े को संग बाँध रहा
एक 
ऊनी गुलाबी गोल,
धुएं के संग संग
निर्गम करता
पिघलाने वाले बोल, 
और मैं -
बर्फ सी चमकी थी
रूप से स्वरूप से,
सोने सी दमकी थी 
हेमंत की धूप से। 

ऊन की डेरी 
बिखर बनी 
पतंगों की डोरियाँ, 
निःस्पर्श खींच रही
हरियाली की लोहड़ियाँ
और मैं - 
उस भावुक क्षण में जमी थी
शून्य से नीचे गिरते पारे से,  
अंतस तक थमी थी 
शिशिर के शीतल आरे से।  

ओरिगेमी से पतंग
मुड़ मुड़ कर बनी
रंगीन फूलों की लड़ी,  
नदियों का मिलन 
दे गया आत्मीयता की कड़ी,  
और मैं - 
सरसों सी लहरायी थी 
कोकिल की फनकार से, 
सोलह सी इठलायी थी  
बसंत के श्रृंगार से।  

फूल फूल पर
राहत से बैठे   
छुट्टी वाले खेल,
खुली छत मन छेड़े 
वह ठंडी रात बेमेल।   
और मैं - 
सुबह सी सधी थी 
फलरसों के प्रकाश से, 
पुनः जीवन से भरी थी 
ग्रीष्म के अवकाश से।     

खेलों ने लड़ भिड़ कर
तोड़ी बांधों की तान,
पानी पानी करती 
एक इंद्रधनुषी मुस्कान।  
और मैं - 
नज़रों से बची थी
बादल के अंजन से,
मिट्टी के इत्रों से सजी थी  
वर्षा के अभिव्यंजन से।

वह छह ऋतुएँ थी 
एक पल के समान 
एक अंकुशित साहिल
के जल के समान।  

और ... 

अब वही छह ऋतुएँ 
एक सदी के समान, 
समुद्र खोजती विषाद में सूखती 
एक नदी के समान।

और मैं -  
एक कागज़ की नाव 
अश्रुवर्षा में भीगी
ढूँढ रही एक छोर, 
यह दलदली यात्रा 
जितनी कठिन उतनी कठोर।  

और उस पर 
निरुत्तर अकाल का वार 
मानो हो एकतरफा प्यार,  
अनंत तपस्या, अनंत त्याग 
ग्रीष्म से गहरी विरह की आग।  

फिर बसंत की उलझन संग 
धूल में ओझिल होती 
वही सदी पुरानी आस,
ना कलकल ना कोयल 
बस सुनने में आती
रुकी रुकी सी साँस।  

शिशिर की डोरी सी
थी सिमटी सिमटी
रग रग से,
बिखरने की ललक थी 
पर कांधा ना मिला
जाने कब से।  
फिर कड़ाके की ठण्ड 
उस पर कोहरा अनंत
हेमंत न हुआ
हुआ जीवन का अंत।  

और यह शरद तो 
जैसे हो कोई अमावस 
सुई हिलाये जाऊँ 
पर धागा जस का तस।  
और मैं बस 
ढूँढ रही
वही बीच का रंग, 
एक अंतिम पत्ती 
जिस पर लिख डालूँ
एक अंतिम रक्तरंजित छंद। 

हे ऋतुराज!
अब बस
एक सातवें मौसम का इंतज़ार, 
जो ना मुझे रिझाए 
ना दे कोई उपहार, 
जिसे ना मैं रिझाऊँ 
ना करूँ अपलक निहार, 
बस हो एक संयम एक समभाव,  
फिर हों ऐसे दो जन्म 
कि सहजतः मन जाए
एक जीवंत त्यौहार।

पृष्ठभूमि: अठखेलियों से संजीदगी तक की अनगिनत ऋतुओं से होती हुई यात्रा - मेरी नयी रचना "सातवां मौसम"

कॉपीराइट: 
1."मेरे सूरज का टुकड़ा" में प्रकाशित https://www.amazon.in/dp/B0C4QHLB18/ 
2. https://sahityakunj.net/entries/view/saatavaan-mausam
फोटो क्रेडिट्स: http://www.sutrajournal.com/the-six-seasons-part-three-by-freedom-cole 

Thursday, June 8, 2023

प्लीज़! हैंडल विथ केयर

 छुई मुई सी लगती है 

बिन छेड़े पिनकती है,
भावनाओं की बदली बन 
बिन मौसम बरसती है।  
तेज़ रोशनी ऊँचे स्वर से 
तंग तंग सी फिरती है,
दूजों द्वारा संचालित
परतंत्र पतंग सी उड़ती है। 

संगत इसकी ऐसी है कि
घुटन भरी सी लगती है,
साँस जिव्हा चाल हमारी

संभल संभल कर चलती है। 
एक अनाम पत्र लिखने को 
यह अंगुलियाँ तरसती हैं -   
या तो चमड़ी मोटी करने की 
शल्यचिकित्सा करवा लो 
या "प्लीज़! हैंडल विथ केयर"
का मस्तक पर टैटू खुदवा लो! 

ढीली टिप्पणियों के मध्य 
कमल सा विराजमान,
मात्र ढाई दशक पुराना
एक कसा हुआ विज्ञान -
कुछ चयनित का तंत्रिका तंत्र
है मूलतः असमान, 
सौ में से मात्र पंद्रह हैं 
अति-संवेदनशील इंसान। 

किसी कक्ष में घुंसते ही 
जब दूजों को दिखती हैं
मेज़ कुर्सी
 ताखाएँ, 
इन चयनितों को दिखती हैं 
मित्रता शत्रुता सूक्ष्म मनोदशाएँ 
सज्जाकार के व्यक्तित्व की विशेषताएँ। 

हाँ! अतिउत्तेजना से
दूजों की अपेक्षा जल्दी थक जाते हैं,  

पर अतिअवशोषण से 
दूजों से चूका नकारा
सहजता से ग्रहण कर पाते हैं,
अकसर रूचि के क्षेत्र में 
प्रथम अन्वेषक बन जाते हैं,
समानुभूति से
प्रतिध्वनित नेतृत्व दिखलाते हैं
और अनायास ही
अपवादक नायक कहलाते हैं। 

यह संवेदना की प्रवृत्ति 
है वास्तव वंशगत 
और पूर्णतः स्थायी सामान्य। 
क्या निजी तौर पर 
जानते हो कुछ ऐसे भावपूर्व इंसान?
तो समझना स्वयं को थोड़ा भाग्यवान 
क्योंकि शोधकार्य से है सिद्ध -
इन अल्पसंख्यंकों के बलबूते ही 
कार्यस्थल फलते हैं 
मित्रमण्डल निर्विघ्न चलते हैं
परिवार में रचनात्मक समाधान निकलते हैं। 

और यदि कहीं तुम ही हो
उन 
पंद्रह में एक गैर,
तो आओ चलो करवाते हैं 
आत्म संदेह से आत्म स्वीकृति की सैर। 

भूतकाल के सुप्रसिद्ध 
अविष्कारक प्रवर्तक कलाकार,
तुम जैसे ही थे जिनमें थी 
रचनात्मकता अनुराग,
अंतर्दृष्टि के संग संग था
देखरेख का भाव,
मृत्युकालिक अपिरिचित से
कुछ चर्चा का चाव। 
 

पर विडंबना
कुछ ऐसी है आज, 
कि जहाँ देखो वहाँ 
योद्धाओं का राज,
इन परामर्शदाताओं को
रत्ती भर ना पूछे यह कुपोषित समाज। 

मगर तुम्हे तो
सारी जानकारी है,
यह जो सर्वव्यापी असुरक्षा 
थकावट भूख बीमारी है,    
तुम्हें तो सबकुछ दिखता है 
यह जो सामाजिक अचेतन से
अभ्यन्तर जीवन में रिक्तता है। 
तुम्हे तो स्वतः है
भविष्य का भान, 
जन्मजात सज्जित हैं
तुम में 
अशक्त जीवों के 
संकटों के समाधान। 

तो करनी होगी तुम्हें
मानव सभ्यता की पावन प्रस्तुति,
और दिखानी होगी 
योद्धाओं के मध्य
पुरोहित की गहन 
उपस्थिति
मनाना ही होगा 
इन प्रतिभाओं 
का महात्यौहार, 
मिला जो है यह 
संवेदनशीलता की
महाशक्ति का दुर्लभ उपहार।  

तो गर्व से कर लेना
स्वयं को स्वीकार,
कर्त्तव्य से कर लेना 
स्वयं का अलंकार,
कुछ भी हो 
ढूँढ ही लेना 
एक योग्य रोशनी उचित स्वर,
और स्वयं को कर ही लेना
"प्लीज़! हैंडल विथ केयर"।


सन्दर्भ: "The Highly Sensitive Person: How to Thrive When the World Overwhelms You" - Dr Elaine Aron 


पृष्ठभूमि:
दुनिया के लगभग १५% लोग "अति-संवेदनशील" (highly sensitive) होते हैं।
डॉ. इलेन ऐरन के शोधकार्य से सिद्ध हुआ है कि इन अल्पसंख्यकों का तंत्रिका तंत्र कुछ अलग प्रकार से रचा गया है।  
World Empathy Day पर प्रस्तुत है मेरी नयी रचना - "प्लीज़! हैंडल विथ केयर"

Copyright: https://sahityakunj.net/entries/view/please-handle-with-care  

Photo credit: https://www.simplypsychology.org/highly-sensitive-persons-traits.html