Sunday, March 20, 2022

काव्य क्यों?

Published: https://sahityakunj.net/entries/view/kaavy-kyon 

आखिर लोग कविता लिखते ही क्यों है?

अंतर्राष्ट्रीय काव्य दिवस पर इस प्रश्न का उत्तर देती मेरी नयी रचना
"काव्य क्यों?"

काव्य क्यों?

एक बात कतई समझ ना आए
क्यों लिखती हो यह लंबी-चौड़ी
विचित्र विषयों वाली कविताएँ? 
लगता दूजा कोई काम न आए,
जो व्यस्त कर अंगुलियों को
बनाया यह अतरंगी व्यवसाय। 

एक बेरंग कागज़ 
दो-चार रंगो की स्याहियों का फुंवारा, 
चंद घंटो में होगा 
चंद शब्दों का तुकांत संवारा,
अंत में इठला कर लिखती हो 
दो अक्षर का नाम तुम्हारा,
मात्र इतना ही ना 
तुम्हारी  काव्य-कथा का किनारा? 

अवयः केवलकवयः कीरा स्युः केवलं धीराः।
वीराः पण्डितकवयस्तानवमन्ता तु केवलं गवयः॥

उफ़! इस ओर जो
यूँ अंगुली उठाई है, 
प्रतिवचन में हर अंगुली मेरी 
काव्य-उड़ान भरने को फड़फड़ायी है।  
क्या बताऊँ
अकथनीय काव्य की यह कथा है,
व्यवसाय नहीं 
यह तो एक विशिष्ट व्यथा है। 
मत पूछो कब लिखते हैं 
यह पूछो कब नहीं लिखते हैं।
आज बिक जाते हैं इंसान, 
बस कविमन से निकले
शब्द नहीं बिकते हैं।   

चंद मिनट पढ़ कर
सत्तानवों ने नकारा,
दो ने सरसरी आखों से सराहा, 
मात्र एक ने
दस बार पढ़ सम्मानजनक
 स्वीकारा।    
भावुकता यूँ लुप्त हुयी
कि गिनती के सरगर्म दिखते हैं,   
तो भूल कर भी ना समझना 
कि हम पाठकों को रिझाने के लिए लिखते हैं।  

तुम्हें दिखे जो 
सीमित शब्दकोष से निकले 
शब्दों की बूंदाबांदी,
है वह अनगिनत आयामों से निकले
मूसलाधार विचारों की आंधी
।   
तुम्हें लगे जो 
चतुर्रंगी स्याही की फुलवारी, 
है वह चेतन मन, अवचेतन मन,
हृदय और प्राण से निकली 
चतुर्धाम की सवारी।  

जब चेतन मन से निकलती 
इन्द्रियों की ग्रहणशक्ति की पुकार, 
कुछ शिकायत कुछ सुविचार 
कुछ सुधार कुछ आभार,
अति ऊहापोह से मुक्ति के लिए 
सौंप देते हैं किसी दैनंदिनी को 
रैन का चैन पाने के लिए।  

जब अवचेतन मन से निकलती
अंतःकरण के आघातों की कराह
कुछ गांठे कुछ कड़वाहट 
कुछ स्वीकारोक्तियाँ कुछ घबराहट, 
जिनकी औषधविज्ञान में कोई दवा नहीं होती,
सौंप देते हैं अंतरजाल के अंड को 
अन्तःशान्ति पाने के लिए।  

जब ह्रदय से निकलती
ह्रदयवासियों से संवाद की भाषा,
गुज़रो को अंतिम बिदाई देकर भी 
धरण करने की आशा, 
बिछड़ों को पूर्णतः खोकर भी 
पाने की अभिलाषा, 
जो कागज़ जला कर भी भस्म नहीं होती,  
सौंप देते हैं ब्रह्माण्ड के कम्पन को   
हृत्स्पंद निरंतर चलाने के लिए।   

जब प्राण से निकलती 
प्रभु से प्राणमयी प्रार्थनाएँ,
क्या त्यागें क्या अगले जन्म संग ले जाएँ,
प्रबुद्ध शुद्ध बनने का बोध आ जाए,  
जो नश्वर प्राणियों से व्यक्त न कर पाएँ,
सौंप देते हैं स्वर्ग के किसी अभ्र को 
प्राणपुण्य कमाने के लिए।  

[... continued from above] 

कविमन कैसे समझाएँ तुम्हें
कभी पश्मीना सा कोमल
कभी फ़ीते सा खिंचता है,  
शब्दों से इसका कुछ अलग ही रिश्ता है, 
कच्ची उम्र से ही 
हर मंजुल छंद पढ़ अंदर तक हिल जाते थे, 
हर पात्र की पृष्ठकथा सुन आंसू बहा जाते थे, 
प्रश्नों के उत्तर लिखते लिखते  
स्वरचित काव्य की छाप जमा जाते थे।  
सयाने हुए तो देखा 
असली संसार में है ही नहीं 
शब्दों का मोल भाषा का भाव,
बस सुनने पढ़ने में आता
एक लठ्ठमार प्रभाव,     
लोग प्रयोग के पूर्व 
शब्दों को तोल नहीं पाते हैं, 
और अपशब्द बिना तो
एक वाक्य भी बोल नहीं पाते हैं।  

कविमन कैसे दिखाएँ तुम्हें
खिन्न सा भिन्न सा होता है,
झुंड की लम्बाई में भी 
स्वयं की गहनता में खोता है, 
मुस्कुराता हुआ वह मधुर चेहरा 
केवल एक मुखौटा है।  
एक व्याकुलता बनी रहती है - 
कहीं समय से पहले
अंगुलियाँ शिथिल न पड़ जाएँ, 
अकस्मात् एक सांझ 
विचारों की तीव्रता न ढल जाए, 
एक ललक सी सदा रहती है - 
संसार को भावप्रवणता से 
बेहतर बना जाएँ,
गिनेचुने भावुकों के लिए 
भावनाओं की धरोहर छोड़ जाएँ,
ताकि प्राण जाए पर काव्यवचन न जाए।

Published/Copyrighted: Published: https://sahityakunj.net/entries/view/kaavy-kyon

सन्दर्भ:
https://blog.practicalsanskrit.com/2010/04/wise-and-poet.html

सन्दर्भ 
https://blog.practicalsanskrit.com/2010/04/wise-and-poet.html 

Monday, March 7, 2022

चुप रहना


चुप रहना 
इस दिवाली है डाली 
एक अलग सी रंगोली, 
सारे शहर ने बनाई
हरी-नीली मोरनी, 
कर कान्हा किसली की कल्पना
मैंने बना डाली 
एक काली-पीली शेरनी। 
पर जब भरने बैठी 
जिह्वा में रंग गुलाल, 
काँपने लगे हाथ-पाँव 
मैं लज्जा से 
मेरी श्वेत कुर्ती लहू से हुई लाल लाल। 
माँ! क्या हुआ है मुझे 
क्यों हुआ यह हाल बेहाल? 
 
मत मचा इतना शोर 
थोड़ा धीमे-धीमे बोल, 
बस इतना समझ ले 
यह रक्त नहींं अमान्य पानी है
हर सयानी होती बालिका की 
यही अभिन्न मासिक कहानी है। 
मेरी रचनात्मक रानी! 
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना। 

 
आज है मेरे छात्रजीवन का 
सबसे बड़ा इम्तिहान, 
सुना है केवल इस पर निर्भर 
आजीविका की बुनियाद, 
और आज ही है भयानक कमरदर्द
अंग अंग के ऐंठन का तूफ़ान, 
आ जो पसरा यह आकस्मिक मेहमान। 
मेरी प्रतियोगी परी! 
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना। 

 
आज है मेरे खेलकाल की 
सबसे गंभीर होड़, 
मैं प्रदेश की प्रतिनिधि धावक
मेरा लक्ष्य दो सौ मीटर की दौड़, 
और आज ही है सख़्त सिरदर्द
चक्कर से घूमे सारा जहान, 
आ जो पसरा यह आकस्मिक मेहमान। 
मेरी तीव्र तितली! 
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना। 

 
आज है मेरी प्रिय अनुजा 
की सगाई की साँझ, 
संगीत नृत्य से है भरनी 
मुझे ही इस उत्सव में जान, 
और आज ही हूँ मैं थक कर चूर 
बदन में सूजन चेहरा बेजान, 
आ जो पसरा यह आकस्मिक मेहमान। 
मेरी गुलगुली गुड़िया! 
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना। 

 
आज है मेरे व्यवसाय का
सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण, 
एक भरी सभा के बीचों-बीच 
करना है दुष्कर शास्त्रार्थ कठिन प्रदर्शन, 
आज ही मेरे आवेगों की 
सारी हदें हुई हैं पार, 
मनोदशा कब बदले 
स्वयं ही नहींं कोई भान, 
आ जो पसरा यह आकस्मिक मेहमान। 
मेरी चिड़चिड़ी चिड़िया! 
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना। 

 
आज हूँ मैं एक नयी नवेली माँ, 
नहींं जानती 
नींद प्यारी अधिक या यह नन्ही जान, 
रात दिन करना है 
जलपान स्तनपान गच्छे का स्नान, 
और आज ही मानो याद आ गयी
मेरी प्यारी नानीमाँ, 
जब प्रचण्डता में दुगुने हुए 
सारे लक्षणों के निशान, 
आ जो पसरा यह अनिश्चितकालीन मेहमान, 
प्रसव के पश्चात का प्रथम आतंकमय लहूलुहान। 
मेरी आदर्श आत्मजा! 
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना। 


[...continued from above] 
हाय! यह कैसा धर्म
क्या इतने धृष्ट थे 
मेरे पूर्वजन्म के कर्म? 
आरम्भ शर्मनाक अंत दर्दनाक
मन में वस्र-कलंक का भय
त्योहारों में पृथकता का भाव, 
जब मेरी पीड़ा से ही
चल रहा यह संसार, 
फिर क्यों है वर्जित 
पुरुषप्रधान समाज में 
इस विषय पर विमर्श-विचार? 
माँ! क्यों बोली तुम बारंबार? 
चुप रहना! किसी से कुछ न कहना! 
 
मेरी लड़ाकू लाड़ली! 
कितना कठिन है तेरे संग तर्क-कुतर्क
ग़लत समझी मुझे तू विगत सारे वर्ष, 
मैं बोली चुप रहना 
इसलिए नहींं कि है यह विषय निषेध, 
बल्कि इसलिए कि 
उस भिन्न लिंग में नहींं जड़ी है क्षमता 
जो तनिक भी समझे 
तेरे इस कष्ट की जटिलता का भेद। 

 
मेरी शौर्य शेरनी! 
आँखों में आँखें डाल
तू सारे कष्ट सह जाएगी 
पर “तुमसे इतना सा सहन नहीं होता“ 
यह वाक्य नहींं सह पायेगी, 
सुन इन बेदर्द शब्दों को
तेरी पीड़ा दुगुनी से तिगुनी हो जाएगी। 
इसलिए फिर दोहराती हूँ—
तू सब सुघड़ता से सहना
मगर चुप रहना, किसी से कुछ न कहना! 

Published/Copyrighted: https://sahityakunj.net/entries/view/chup-rahanaa 
महिला दिवस पर परुष को एक पुरजोश भेंट 
प्रतिमास असहनीय पीड़ा चुपचाप सहने वालियों को समर्पित 
सच्चे वृत्तांतों पर आधारित