Tuesday, August 23, 2022

असली क्षमावाणी

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पृष्ठभूमि: कच्ची उम्र से जैनधर्म के इस पर्व से सम्मोहित मेरी नयी रचना

असली क्षमावाणी

हाँ! उन्होंने हमें ठेस पहुंचाई! 
हाथ बने उपहारों की कीमत न चुकाई
एहसानों की सुधबुध न आई,
कौशलों की कद्र न जताई
दोषों की प्रसिद्धि करवायी,
बिन समझे ही धारणा बनाई
मन के कोलाहल की हंसी उड़ाई,
पदोन्नति पर दी न बधाई
चुनौतियों में संवेदना न दिखाई,
रक्तरंजित प्रेमपत्र के उत्तर एक चिट्ठी न आई
सालों की मित्रता पर सालगिरह याद न आई,
अंश के जन्म पर नहीं की गोद भराई
परिजन की मृत्यु पर सांत्वना न आई,
हाँ, उन्होंने हमें ठेस पहुंचाई।   

क्षमा तो मांगी नही तनिक भी
फिर भी चलो हमने उन्हें माफ किया 
पर्यूषण के अवसर पर 
अपना मन भी साफ किया। 

हाय! यह मैंने क्या किया था! 
मति मारी गई थी या चरस खा लिया था? 
सप्रेम भेंटो पर मुँह बना दिया था 
कितनों की कृपाओं को भुला दिया था,
खरी प्रतिभाओं पर प्रश्न उठा दिया था
राई सी त्रुटियों का तमाशा बना दिया था,
उनके भिन्न होने का उपहास किया था
उनकी व्यग्रता को हंस कर नकार दिया था,
दूजे की विजय को सहा नहीं था
उनके संघर्षो को सुन मन ही मन मुस्का दिया था,
निर्दोष प्रेम को झट से जुदा किया था
बचपन की मित्रता पर दार धरा दिया था,
दूजे के शुभ समाचार पर स्वयं को जला लिया था 
कुटुंबी को शैय्याग्रस्त अंततः विदा किया था,
हाय, यह मैने क्या किया था,
मति मारी गई थी या चरस खा लिया था? 

दोष तो अक्षम्य थे
फिर भी चलो आज स्वयं को माफ किया, 
पर्यूषण के अवसर पर 
अपना मन भी साफ किया। 

यह उपरोक्त वाक्य
कुछ सुने सुने से लगते हैं 
प्रतिवर्ष पुनरावृत्त हो 
फिर सधे सधे से बंटते हैं।  
पर लोग जितना सुन्दर बोलते है
जितना सुन्दर लिखते हैं,  
उतने सुन्दर क्यों नहीं दिखते हैं?
मात्र तीस के फिर साठ के क्यों दिखते हैं?
क्यों यह काले रंगे केश
हाथ फेरते ही गिरते हैं?
कहीं ऐसा तो नहीं कि 
वचन में क्षमावाणी 
पर मन में जटिल गांठे लिए फिरते हैं? 

आज पर्व के पहले दिन 
पहली बार दिल खोल ही दो 
क्षमा का यह ढोंग करना छोड़ ही दो, 
मन की गीता पर हाथ रखो
लोकमत से डरना छोड़ ही दो,  
सच सच कहो! 
क्या दूजों को
क्या स्वयं को माफ किया?

मेरे प्रिये! सच कहूँ तो,
वर्षों से निरामिष होकर भी 
तामसिक प्रवृत्ति नहीं जाती है,
माफ़ किया बोलकर भी 
स्मृतियाँ साफ़ नहीं हो पाती है,
भींख मांगने पर भी  
हमारे हिस्से क्षमा नहीं आती हैं
दर्दनाक गुत्थियाँ
पत्थर की लकीर की तरह 
वहीं की वहीं रह जाती हैं।  

खम्मामि सव्व जीवेषु सव्वे जीवा खमन्तु में, मित्ति में सव्व भू ए सू वैरम् मज्झणम् केण इ

कितना अयथार्थ 
कितना असंभव 
यह उपलक्ष्य लगता है, 
स्पष्ट प्रतीत होता है
फिर भी दूर यह लक्ष्य लगता है।  
जैन तो नही जन्मे
न बन पाए श्वेताम्बर दिगंबर,
अतितुच्छ हम कैसे जाने
इस अतिमहामना पर्व का मंतर,
फिर भी प्रयत्न करते हैं 
इसे सीधे पंचपरमेष्ठी से सीखने का, 
घोर साहस करते हैं 
इसे स्वरचित शब्दों से देखने का।  

हे अरिहंत! मुक्ति दो 
मन की जटिल गुंथन से
काया की वजनी जकड़न से ।

हे सिद्ध! भर दो 
उत्तमक्षमा को चित्त में ह्रदय में प्राण में।    

हे आचार्या! शक्ति दो 
स्वयं को क्षमा कर पुनः आत्मविश्वास धरूं।

हे उपाध्याय ! शक्ति दो
दूजों को क्षमा कर पुनः विश्वास कर उन्हें वरदान दूं।

हे मुनि! शक्ति दो 
विषण्ण क्रोध के पीढ़ीगत प्रतिरूप से 
स्वयं को वंशजों को चिरस्वतंत्र करूँ।  

Friday, August 12, 2022

अमर प्रेम

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अमर प्रेम 

लोग कहते हैं मैं बदल गई 
मेरे शोले से प्रेम की अग्नि 
तीली की ज्वाला सी ढल गयी।   

हाँ सही तो है 
मैं बदल गयी,
पर बदली नहीं मैं आज 
बदली थी जब 
है वह डेढ़ दशक पहले की बात।   

तुझसे बिछड़ने से पहले
कंठ में अकाल सा पड़ा था
पर इस जिव्हा को 
तेरे उपनामों की चाशनी सहला रही थी।  
कुर्सी को सीधा करने के प्रयत्न में 
छू रही थी मैं आसपास के बटन
पर इस चर्म से 
तेरे स्पर्श की ही खुशबू  रही थी।   
गूंजा तो था 
कुर्सी की पेटी बाँधने का सन्देश
पर इन कानों को 
एक बारम्बार धुन सता रही थी।
जहाज के उड़ान भरते ही
कम हुयी थी आसपास की हवा
पर इन साँसों में  
तुझसे उठती एक कम्पन समा रही थी।    
जब तक दिख रहे थे तुम 
उस रोशनदानी खिड़की से 
यह आखें अश्रुवर्षा से 
केवल प्रेम बरसा रही थी।    

कैसे समझाऊं कि 
मैं क्या 
मेरी तो हर इन्द्रिय ही बदल गयी थी।   

यहाँ परोसे जा रहे 
मुझे मेरे ही धर्म के 
कटु अपक्क से चित्र,
पर मैं उपजती जाऊँ  
सरस आस्थाओं से पोषित 
एक पवित्र चरित्र, 
चख जो सकती हूँ
पुण्य पंथ की मिठास को।     

छेड़े जा रहे 
जातिवाद के आरोप बारम्बार,
पर मैं करती जाऊँ
मात्र मानवता की वंशावली का विस्तार
छू जो सकती हूँ
पूर्वजों की कीर्ति रश्मियों को।     

ललकारते जा रहे  
कोलाहलमय कट्टरता के आरोपण,
पर मैं चुपचाप रचती जाऊँ
एक प्रगतिशील उदाहरण,
सुन जो सकती हूँ
बढ़े चलो की पुकार को।  

हवाओं में है 
बोलचाल की शैली की ठिठोली
पर मैं जलाती जाऊँ
बहुभाषिता में निहित संघर्षों की होली, 
सूंघ जो सकती हूँ
सुबाड़वाग्नि की सुगंध को।   


घूरे जा रहे 
नारी के विरुद्ध पक्षपात के अभियोग
पर मैं दर्शाती जाऊँ 
सशक्त स्वतंत्र स्री का योग
देख जो सकती हूँ 
हिमाद्रि पर बैठी स्वयंप्रभा समुज्ज्वला को।   

और कैसे समझाऊं कि 
मैं क्या 
मेरी तो हर इन्द्रिय ही बदल चुकी है।  

प्रेम पर संदेह था 
तो पुनः आती हूँ इस भाव पे
यूँ बसा चलती हूँ 
तुझे हर हाव भाव में,
कि हर कोई पूछ बैठे 
क्या अभी अभी आयी हो 
बैठ किसी तिरंगी नाव में।  
मेरे जन्म पर ही झटके से तोड़ा था
उस नौमासी गर्भनाल को,
पर अंतिम शैय्या तक ले जाउं 
तुझ संग जुड़े इस जीवंत तार को।     
वह अपूर्व प्रेम फीका पड़ जाए 
देख तुझ संग प्रीत के राग को,
एक दिन अवश्य बुझेंगी 
तेरे विरुद्ध सतही विश्वधारणाएं 
देख मेरी भक्ति की आग को।  

इस पंद्रह अगस्त
चाहूँ मैं भी स्वतंत्रता 
मुझ पर भिन्नता के आरोप से 
मेरे बदल जाने के जनप्रकोप से।
नहीं समझ पाऊं कि लोग  
मुझे भिन्न खिन्न होता देख 
यूं जश्न क्यों मनाते हैं
कहते हैं दूरी प्रेम बढाती है,
फिर मेरे देशप्रेम पर प्रश्न क्यों उठाते हैं

अगले बरस जो फिर दिखूं मैं 
थोड़ी और बदली बदली सी,
पढ़ लेना मेरी भी पृष्ठकथा 
एक धीरा समझ के
या चाहो तो भिड़ लेना मुझसे 
एक प्रवीरा समझ के
या छोड़ देना मुझे मेरे हाल पर
हर बरस मात्र एक दरस को तरसती
एक मीरा समझ के।   

 

पृष्ठभूमि:
देश को विश्व के कण कण में बसाने वाले 
देश की संतानों के विरुद्ध विश्वव्यापी पूर्वधारणाएं तोड़ने वाले
हर प्रवासी के लिए मेरा "अमर प्रेम"
जय हिन्द! 

सन्दर्भ: 
१. https://www.hindikunj.com/2021/08/himadri-tung-shring-se-poem.html 
२. http://purishiksha.blogspot.com/2018/09/bcom-1st-year-hindi.html
३. https://en.wikipedia.org/wiki/Anti-Indian_sentiment 

४. https://www.asianstudies.org/wp-content/uploads/breaking-free-reflections-on-stereotypes-in-south-asian-history.pdf

५ . https://www.diversityinc.com/six-things-you-should-never-say-to-south-asian-americans/ 

६. https://www.amazon.com/Stereotype-Global-Literary-Imaginary-Literature/dp/0231165978

Wednesday, August 3, 2022

कच्ची रोटी

 कच्ची रोटी 

एक डोरी से बंधे 
अनेकों चंगे अष्टे, 
कुछ मुझसे छोटे
जो मेरे कहने पर 
जबरन बेधड़क 
दूल्हा दुल्हन बन जाते थे, 
मेरे होते हुए कभी 
पोशम्पा भाई पोशम्पा में 
पकड़े नहीं जाते थे।  
तो कुछ मुझसे बड़े
जो कभी मुझे कैंची से 
सायकल चलाना सिखाते थे, 
तो कभी लुकाछुपी में 
मुझे ऊंची खिड़की में छुपा
अंत में ढूंढना ही भूल जाते थे।  
अनेकों खेल 
अनेकों सहज हाव,  
छह की छह ऋतुओं में 
केवल एक सौहार्द का भाव।  

जितने झटके से छुटपन छूटा 
उससे दुगुनी गति से 
बीते अगले कुछ दशक, 
आज सारे अतिव्यस्त 
जीवन की आपाधापी में 
बन चुके हैं शुद्ध प्रबुद्ध वयस्क।
अनेकों संघर्ष   
अनेकों जटिल हाव,  
अनगिनत ऋतुएँ
अनेकों मिश्रित भाव।   

विद्वानों से सुना है
रीत यही चली आती है, 
हर डोरी समय के 
समझ के साथ 
अंततः पूर्णतः टूट ही जाती है।
पर क्या करूँ 
वनस्पति-कक्षा की 
वह ज्वलंत आकृति 
मानस पट से मिट नहीं पाती है,   
वृक्ष ले अनेकों रूप 
पर द्वितीयक तृतीयक जड़ें  
सदा जुड़ी ही रहती हैं, 
शायद इसीलिए वह डोरी 
हर दुःखद ऋतु में 
आंसू से आंसू मिला 
मेरे आसपास ही बहती है। 
 
हाँ! 
अब हैं सौहार्द के 
अतिरिक्त अनेकों भाव 
पर है एक आशा की छाँव,
कि आएगी एक सशब्द ऋतु,
कि छोटों को जताऊँ 
मैं अब भी वही हूँ
तुम्हारी माँ छोटी, 
और बड़ों को बताऊँ 
मैं अब भी वही हूँ
आपकी कच्ची रोटी।  

Published/Copyrighted: https://sahityakunj.net/entries/view/kachchi-roti

पृष्ठभूमि: बचपन को बचपन बनाने वाले मेरे सभी छोटे बड़े भाइयों बहनों (अंग्रेजी में "कज़िन्स") को समर्पित