Wednesday, November 24, 2021

Aapke Kandho Par

Published here https://www.kayasthasamaj.in/team/newsDetails/Aapke-Kandho-Par-923 

आपके कंधों पर 

बार बार एक स्वप्न आकर
धर जाता मेरी आँखों पर,
मैं छोटी सी गोल मटोल सी
श्वेत फ्रॉक पर श्वेत रूमाल लटकाकर,
रसना गर्ल से केश सजाकर, 
बड़े गर्व से अधिकार से 
बैठी हूँ आपके कंधों पर।
   
घूमूँ एक रंगीन सा मेला
जिस पर दृष्टि रुके
वह खेलयंत्र मेरा,
त्रिकोणी पतंगे प्रतिसम गुब्बारे 
बटोरे कितने चाँद सितारे 
गुल्लक भर भर कर,
बड़े गर्व से अधिकार से
बैठकर आपके कंधों पर। 

भोर हुयी तो थी मैं जैसे
एक नीरस श्वेतश्याम
चित्रपट के सेट पर,
ढीले खुदे पन्नो के धुआँरे
बिखरे उड़ते इधर उधर,    
सूना बेरंग ही रहा था सदा 
यह धुआँधारी नगर में 
बसा दादी का घर, 
मात्र स्वप्न ही था वह जहाँ 
बड़े गर्व से अधिकार से 
बैठी थी आपके कंधों पर।

संगमरमरी नगर 
से फिसल निकल मैं,
सुमोहित रंगीली दुनिया से,  
सुपोषित रसीले विषयों से, 
पुकारते यंत्र अधिगम, 
गले लगाती डेटा संरचना, 
पुचकारता संगणक विज्ञान,  
मीठी गोली खिलाते पाठ्य खनन, 
सिर-चढ़ाते खगोल भूगोल,    
पीठ थपथपाती त्रिकोणमिति ज्यामिति,   
आधी रात धैर्य से गोदी में सुलाते तकनीकी शोधकार्य,
धुल गया धुंधला गया
वह स्वप्न जहां 
बड़े गर्व से अधिकार से 
बैठी थी आपके कंधों पर।   

एकाएक आया
मध्यजीवन घोरसंकट, 
मोहभंग हुआ
सुन सुन कर रंगो का शोर,
शिथिल पड़ी
पी पी कर रसों का घोल,  
फिर सताने जगाने लगा 
वही स्वप्न जहां 
बड़े गर्व से अधिकार से 
बैठी थी आपके कंधों पर।

बैठ कंधों पर अब 
देख सकती थी सात समुन्दर पार, 
वह धुआँरे ढेर बन चुके थे 
क्रन्तिकारक काव्य संकलनों की कतार।  
पुकारने लगे "भोर के गीत" 
गले लगाने लगी "प्रभात फेरी"  
पुचकारने लगे "रजनी के पल"  
मीठी गोली खिलाने लगी "सुरबाला"
सिर-चढ़ाने लगे "सिर पर शोभित मुकुट हिमालय"     
पीठ थपथपाने लगे "आज़ादी के पहले आज़ादी के बाद" 
आधी रात धैर्य से गोदी में सुलाने लगे "विजन के फ़ूल"।

जड़ो में जकड़े काव्यरसों का
जबसे जलपान किया है,
शैशव के बारम्बार स्वप्न को
पूर्णतः भान लिया है,
उस श्वेतता में निहित इंद्रधनुष को 
अंततः पहचान लिया है।

हे स्वप्नसम्राट! हे कविराज! 
लो कवि बन ही गई मैं
गई मेरी भी अन्तःवाणी निखर,
गर्व से अधिकार से नहीं   
विनम्रता से कर्त्तव्य से,
बैठी नहीं खड़ी हूँ आज 
आपके स्वप्नमय महामय कंधों पर। 

सन्दर्भ: https://en.wikipedia.org/wiki/Indra_Bahadur_Khare 

Mere Sooraj Ka Tukda

Published here: https://sahityakunj.net/entries/view/mere-suraj-ka-tukda 

 मेरे सूरज का टुकड़ा 

हाँ नहीं देखा तुम्हे कभी 
बस देखी एक तस्वीर, 
एक सुनहरे चेहरे का गोलाकार
जिसमे निहित जैसे सौर परिवार।  

हेमंत की धूप सी भीनी मुस्कान
अरुणिमा से रंगे अधरो के कमान,
मध्यान्ह के सूर्य को भले ही ताक लूं लगातार,
इन चौंधियाने वाली चमचमाती आंखो में
नहीं झांक पाऊं एक भी बार, 
सुवर्ण कृष्ण सी छवि घुंघराले बाल लिए, 
किरणों सा वात्सल्य बिखेरती
दिवंगतों संगियों भावी आगंतुकों के लिए।  

इस रवि छवि पर नहीं हुआ
किसी अंजन का असर,
अपनों की सपनो की सूर्यदेवता की
लगनी ही थी नज़र। 
क्यों अस्त हुए यह बोध नहीं
कहाँ रूपांतरित हुए यह ज्ञात है मुझे, 
उस शून्यस्थान में गए थे छोड़  
एक लौ एक लपट,  
जो मैने उठा ली थी झट से झपट के,
जन्मदिन की भोर मिला
नया खिलौना समझ के। 

आज चार दशक पश्चात्
सवितुर की कृपा से 
उस लौ के उजाले में,
तुम दिवाकर से स्पष्ट दिखते हो मुझे
जनक की तपस्या नियमितता अनुशासन में
तेजस ऊर्जा आभा से मिलते उदाहरण में,
जननी के नर्म स्पर्श से मिलती राहत में
हाथ से बुने अनगिनत ऊनी कपड़ों की गरमाहट में,
भार्या की रक्षात्मकता सौहार्द में
अंधेरों से रावणों से अकेले डटकर निपटने की आग में।  

जानती हूं -
दिनकर की दूरी से अधिक दूर हो 
नही मिलोगे खेलने-लड़ने को
दो क्षण के लिए भी,
पास होते तो शायद लड़ लेते 
इस कृत्रिम सोने सी दुनिया से
थोड़ा मेरे लिए भी।   

पर जहां भी हो बस जान लेना -
मेरे अंतर्मन के आदित्य! 
उस लौ को रखती हूं सहेज कर
तुम्हारी सोनम धरोहर की तरह,
सदा रहते हो मेरे ही संग
मेरे रक्षाकवच मेरे सहोदर की तरह।   

Friday, October 22, 2021

Mera Kuch Saamaan


मेरा कुछ सामान 


नमस्कार!
आइये बैठिये!
आपका बहुत बहुत स्वागत है
मेरे दस कक्षों के घर में,
अनगिनत खुशियां डाली
हर खिड़की हर दर में।
इतनी माया ममता बुद्धिमता बरसाई
हर नुक्कड़ कोने वास्तु में,
कि जीवन मिले ना मिले अन्य किसी ग्रह पर,
अवश्य मिल जाएगा मेरे गृह की प्रत्येक वस्तु में।  

शुरू करती हूँ प्रवेश मार्ग 
हरे भरे आँगन बगीचे से,
"हर्ष" से सींचे मैंने इतने गमले 
कभी ऊपर कभी नीचे से, 
आमोद बिछाया बाघ बैठक के फर्नीचर बंदनवार में,
उल्लास पिरोया हर रंग के पवन झंकार में। (१)

इतने देशों से लायी
इस बैठक कक्ष का सामान,
तब जाकर बना यहाँ का "अभिमान"।  
हर दीवार पर भर-भर के चिपका दी
संसार की सबसे सुन्दर तस्वीरें,
गर्वान्वित करते मुझे यह गद्देदार सोफे,
सौ इंच का टीवी और प्रदर्शन कृतियों की लकीरें। (२)

और यह है चांदी के छुरी-कांटो
से "मनोरंजित" भोजन कक्ष,
भर-भर के परोसा आतिथ्य
दस कुर्सियों की भोजन मेज़ पर,
और उसपर चिपकायी चंदेरी चटाई इस कदर
होने नही देती तनिक भी इधर उधर। (३)  

पीढ़ियो से इतने "प्यार" से संभाले
जाने कितने अचार मिर्च मसाले,
हर परिमाण के बर्तन डिब्बे जुटाए 
जमाये खानों में कस कस के,
रसोई पर न्योछावर किए
जाने कितने प्याले प्रेम रस के। (४)   

और यह है घर के अंदर ही दफ्तर, 
डाली यहाँ बेहिसाब "प्रेरणा" 
हर उपकरण का सर्वश्रेष्ठ रूपांतर, 
चार चित्रपटों वाला नवीनतम संगणक 
एकाधिक वैशिष्टयों वाला अधुनातम मुद्रक,
और ऊंचा सा तख्ता धरे
एक सौ से अधिक पुस्तक। (५) 

सोने वाले दो, पर तकिये हैं बीस, 
चारो ओर परदों की परत तीस,
भूमि पर सुप्त कालीन आलीशान,
प्रकट तो करती हूँ प्रतिदिन "आभार" 
पर लौटा ना पाऊँगी इस शयन कक्ष के एहसान । (६)

किस परिधान पर क्या जंचता है,
किसे कौनसा अलंकार अच्छा लगता है, 
कौन चाहता इस्त्री सिलाई, 
किसे हैंगर तो किसे ड्रावर भायी, 
सारी "दिलचस्पी" सारी संवेदना लुटा देती हूँ
इस वस्त्र कक्ष में धीरज धर के घंटो बिता देती हूँ।(७)

और यहाँ हज़ारो की तादाद मे भरे
खिलौनों से मेरी लाखों "आशाएं",
एक प्रतिशत भी संदेह ना आए -
खेल का परिश्रावक चिकित्सक बना देगा
गृहों का नमूना वैज्ञानिक बना देगा
पिंग-पांग का संग्रह सीधे ओलिंपिक पंहुचा देगा।(८)

पावचक्की साइकिल डंबेल से तना, 
योग चटाई इलाजी वृक्षों पत्थरो से सना,
"श्रद्धा" का पात्र व्यायाम कक्ष,
आधुनिक पुरातन का उत्तम मिश्रण,
भले ही महीनो होते नहीं दर्शन,
फिर भी मेरी सारी आस्थाएं है यहाँ अर्पण।(९)

अंततः यह है मेरा अतिपवित्र पूजा कक्ष,
ध्यान जप से भर दी है परम "शान्ति",
एक विस्तृत सा मंदिर अनेकों प्रतिमाएं,
बगल में बड़ी सी अलमारी में सधी 
पूजा की पुस्तकें यज्ञ सामग्री वृत कथाएं।(१०)

नमस्कार!
कोने में चुप बैठा
एक लाचार उपेक्षित वंचित इंसान,
सामान को मिलता इतना सम्मान
देख कर है बड़ा हैरान परेशान,
मन ही मन सोच रहा कि काश! 

वहाँ सुख बरसाते बरसाते,
यहाँ एक आंसू ही सुखा दिया होता। (१)
वहाँ गौरव करते करते,
यहाँ एक गुण ही स्वीकार लिया होता। (२)
वहाँ मनोरंजन करते करते,
यहाँ देख बस एक बार मुस्कुरा दिया होता। (३) 
वहाँ प्रेम रस बहाते बहाते,
यहाँ स्नेह का एक घूँट ही पिला दिया होता। (४)
वहाँ प्रेरणा जगाते जगाते,
यहाँ कल की किरण देखने का एक कारण ही दिखा दिया होता। (५)
वहाँ आभार प्रकट करते करते,
यहाँ वर्षो की सेवा को एक क्षण ही सराह दिया होता। (६)
वहाँ दिलचस्पी दिखाते दिखाते,
यहाँ दिल का नहीं तो दिन का हाल ही जान लिया होता। (७)
वहाँ आस लगाते लगाते, 
यहाँ एक प्रतिशत विश्वास ही जता दिया होता।(८)
वहाँ आस्था भरते भरते,
यहाँ एक ईमान ही भान लिया होता। (९)
वहाँ शांतिकुंज बनाते बनाते,
यहाँ मन के कोलाहल को बस हल्के से सहला दिया होता। (१०)

चीज़ो के दाम
ब्रांडो के नाम जानते जानते
इंसान की कीमत को भुला दिया है।
अति की हद करते करते 
धरती को स्पर्धा का आलय बना दिया है।
भौतिकवाद में खोते खोते 
घर को मंदिर की जगह संग्रहालय बना दिया है।

देख निर्जीवो के प्रति
इंसान का यह शाश्वत समर्पण, 
लगता पृथ्वीग्रह पर हो
जैसे एक सर्वव्यापी भ्रम -
जब आएगा यमराज का निमंत्रण,
चार कन्धों संग चलेंगे
सामान से आबाद चार बड़े बड़े वाहन।

सन्दर्भ: डॉ. बारबरा फ्रेड्रिक्सन की किताब "पॉसिटिविटी" में विस्तारित सकारात्मकता के दस पहलुओं पे आधारित https://counselorcarmella.wordpress.com/2012/07/31/dr-fredricksons-10-positive-emotions/)

Copyrighted/Published: Published here https://sahityakunj.net/entries/view/mera-kuchh-saman 

पृष्ठभूमि: संसार में हास्यास्पद गति से बढ़ते हुए भौतिकवाद से प्रेरित "Black Friday" पर विशेष मेरी नयी रचना 


Monday, September 20, 2021

Tum Se Na Ho Payega (hindi)

Published here. http://sahityakunj.net/entries/view/tum-se-naa-ho-payega 

तुम से ना हो पायेगा 


नवरसों से भर भर के, 
जब भेजेंगे हम मतों के तीर,
तो कौन तुम्हे बचाएगा ?
कोशिश भी ना करना प्यारी,
दसों दिशाओं से बोले हम पीर, 
कि तुमसे ना हो पायेगा !

यह जो अव्वल आयी हो आज 
बस रट्टा मारी मारी, 
अनर्थ सारे अंक, 
कल बस करनी है तैयार
रोटी भाजी तरकारी । (१) 

बनाएं है यह जो छप्पन पकवान, 
और सजाएं है कला शिल्प के चित्रहार, 
जो हमपे होता समय अपार 
हम भी पालते रुचियाँ हज़ार । (२) 

इतनी सादी सात्विक कि 
गाय समझ यह दुनिया चर जाएगी, 
इतनी बनी ठनी बनावटी कि 
अत्यधिक श्रृंगार देख यह दुनिया डर जाएगी । (३) 

इतनी मधुभाषी कि कैसे बनोगी  
कोई चिकित्सक प्राध्यापिका या प्रबंधक, 
इतना उच्च स्वर कि सब कहें
अशिष्ट कठिन भयानक । (४) 

विदेशी हो तो होंगे नखरे हज़ार 
देसी हो तो होगी गऊ गंवार, 
इतनी हल्की कि हवा में उड़ जाएगी  
इतनी भारी कि धरा ही फट जाएगी  ।  (५) 

बन जाओ अब प्रेमिका हमारी 
लगती हूबहू विश्वसुंदरी, 
वरना खो बैठोगी रंग रूप 
यूँ करेंगे चरित्र हनन हर गली बिरादरी । (६) 

लेलो चाहे कोई उपाधि 
करलो उच्चतम से उच्चतर शिक्षा पूरी, 
जब तक ना जाओगी बियाही और फलोगी दो पूत 
रहोगी मात्र अधूरी की अधूरी । (७)

अरे तुम कैसे बनी पटरानी
कैसे मिली है यह सत्ता ? 
निश्चित होगी पहुंच पिता या पति की 
या मिला होगा नियति  का कोई तुरूप पत्ता  । (८) 

दिखती हो बड़ी संतुष्ट सी आज 
अच्छी नहीं लगती यूं आनंद में रम, 
चलो याद दिलाएं कोई दुर्बलता कोई दुखद क्षण 
एक नयी तरह से करें यह शान्ति भंग । (९) 
 

प्रथमं शैलपुत्री  द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेतिचतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति.महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री  नवदुर्गाप्रकीर्तिता:
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।

हँसते हुए झेले थे, 
रस लेके भेजे गए 
वह व्यंग विष के तीर,
रूढ़ियों की टकसाल दोहरा रहे 
आप पीर हो या हो कोई कीर?
अपने मंद मतों को दर्शाने के लिए, 
आपका बहुत बहुत आभार।
व्यस्त थे इतने स्वयं के विकास में 
कि पहले ना किया कोई प्रतिवाद कोई वार ।
यूँ तो हम रखते नहीं 
विषैले तत्वों से कोई सरोकार, 
नवरात्रि  के इस पावन अवसर पर 
सोचा हम भी दिखा दें अपना धर्म ईमान, 
उठा लें अपनी कलम का कमान
और लगा दें एक तीर से नौ निशान  ।

इन अंको से आंकने वालो को 
दो क्षण में ही हर लेते हैं ,
जब मस्तक पे सजे अर्धचंद्रकार से 
लकीरों के बीच भी पढ़ लेते हैं । (१) 

ना रुचियाँ ना अभिरुचियाँ, 
हैं बस कुछ माताकृपाएं,
मिली कुछ इस भांति  
यह दसों दिशाओं में फैली दशभुजाएँ, 
कि समय से पराजित कभी हो ही ना पाए  । (२) 

जिन्हे कभी खटकती सादगी 
तो कभी वस्त्र अलंकार, 
आओ पढ़ा दें उन्हें सौंदर्यशास्त्र का पहला पाठ, 
सादगी की सशक्ति सिद्ध हुयी 
जब निरंतर फिराए मोती एक सौ आठ, 
और श्रृंगार रसे केवल स्वयं के लिए 
उम्र सोलह हो या साठ । (३) 

नहीं आती रंगीन भाषा इनसी 
नहीं सीखी नपी तुली सी बोली सतही, 
बस रखते एक कलश में मधु तो दूजे में लहू, 
सीधे विचारों से होता संचार 
और सन्देश होते शुद्ध सहृदयी । (४) 

हमारा श्वेत-श्याम में विभाजन करके 
इन्हें परमानन्द मिला है।
है इनकी समझ से कोसों दूर कि 
यह गहन कमल कीचड़ में नहीं 
नरक से होकर खिला है । (५) 

लगता जिन्हे कि मान प्रतिष्ठा 
बनते-बिगड़ते लगते एक दो दिन, 
दिखते इन्हें हम मात्र 
एक शिकार एक कमसिन, 
पर माँ ! मत घबराना तुम, 
बेटी नहीं, जन्मी है एक बाघिन ।  (६) 

सुन कर प्रगति की 
यह सीमित परिभाषा
है स्तंभित मेरे मानसबाण, 
हम हैं ऐसा बीज 
जो चूक से भी दब जाए 
तो जन जाए सम्पूर्ण ब्रम्हांड । (७) 

आज के रावण को जलाने 
नहीं चाहिए कोई वानर सेना 
ना कोई रामभक्त मदारी, 
बस चाहिए एक अदृश्य त्रिशूल से 
अदृश्य आड़ तोड़ती, 
कर्मठ स्वाधीन सी नारी । (८) 

हर घाव पर गौरव हमें
हर भूल से मिली सीख है याद,
यह शान्तिचक्र अर्जित हुआ
घोर नवचक्र साधन के ही बाद। 
इन पुनर्निर्मित कर्णों के बगल 
अब सदा रखते एक शंख,
जो बोले जामवंत सा नाद ।  (९) 

Thursday, August 5, 2021

Pita aur Panchtatv (Hindi)

Published https://www.kayasthasamaj.in/team/newsDetails/details-766 

ना हास ना परिहास 
ना किसी उत्सव में आस 
जाने कैसे बीते 
विगत बारह मास  

 पिता और पंचतत्व 

आज का दिन है अद्भुत सा,
कुछ जीवित कुछ मृत सा,
प्राण का हर मूल तत्व लगे
कुछ विष कुछ अमृत सा,
जलता बुझता सा दिखा
जब घनी छांव सा वह हाथ,
जीवन की लाख स्मृतियां
ज्वलंत हो गई एक साथ


सातवें आसमाँ की नीलिमा में बसा 
मेरा स्वर्ग से सुन्दर बचपन,
गगनचुंबी इमारत सा लगता
अनंत छूट का वह बिन खूंट आँगन,


आज भी आँगन में उड़ती दिखे वह 
गोदी से उछलती हुई हवा की सवारी,
मिले थे अनगिनत इंद्रधनुषी पंख
और मैं थी हवामहल की राजकुमारी


पंख से अधिक मिली थी जड़ें
वह भूमि पे रहने का सादापन,
आज भी सत्कारे वह काठ का गुड़िया घर
और उसमे सजे माटी के बर्तन, 


बर्तन से याद आये वह घाट घाट के जलपान
बिन पतवार की थीं कितनी नदियाँ पार,  
मानो संग था कोई सेतु 
बांधे कितने गांव कितने परिवार 


उस सेतु में ज्वलित छोटे शहर की बड़ी तपस्या, 
बिटिया को आगे पढ़ाने की,
देती रही मुझे एक आँच एक अग्नि 
सीमाओं से बड़े स्वप्न सजाने की  


आज का दिन है अद्भुत सा
है पिता का अंतिम संस्कार,
इन अर्चित पुष्पों में दिखे
वह बिन मांगे मिले मनचाहे उपहार,
इस तिलक के आरोह से स्मृत होता
वह मेरे हर गुण का गुणा कर जाना,
इस वस्र की श्वेतता से सुधता 
वह मेरी हर भूल को क्षण में क्षमा कर जाना, 
इन चरणों में बंधी सुतली में दिखी
वह संक्रांति की पतंग की डोरी,
राम नाम सत्य है की गूँज में 
फिर सुनाई दी वह बचपन की लोरी


आज पिता के साथ 
भस्म हुआ वह निःशर्त लाड़,
ध्वस्त हुई वह बेटी 
राख हुआ वह असीम दुलार,  
क्षण भर में हुई
राजकुमारी से भिक्षिका 
कर रही अंतिम बिदाई
वह कल्पना से कठिन कपाल क्रिया 
सौंप रही उन्हीं  पंचतत्वों को,
अंततः सीख रही पुत्री धरम
कोई आँच न आये यही याचना
मिले चरम मोक्ष शांति परम



Monday, July 12, 2021

Shan Ganan (Hindi)

क्षण गणन

यूं एक क्षण में सिमटा
मेरा सारा भ्रमाण्ड,
भूत भविष्य के दोनो काल,
तीनों मन लोक और चारो धाम

इसमें ही समाईं 
पंचतत्व दर्शाती छह ऋतुएं
सात समुंदर की अष्टभुजायें,
और नवरस बरसाती दसों दिशायें ।

इसे बिखरने ना दे
एकादशी के आते जाते
यह कृष्ण शुक्ल उत्सव, 
और बिसरने ना दे
प्रतिवर्ष आता सूर्य से सुनहरा
यह बारहवां दिवस ।

इस क्षण से हर क्षण
को तोलते तोलते, 
बीता अर्ध जीवन 
यही मोलते मोलते,  
क्या है मेरा सौभाग्य
इस क्षण कों अतीत में
क्षण भर छू पाना,
या मेरा मंद भाग्य
हर भावी क्षण का
यू शून्य मात्र रह जाना ?