आज की मधुशाला
तुझे देख देख सोना
तुझे देख कर ही जगना,
तुझे देख कर ही
भोजन के फांक फांक चखना।
जब से मिला तेरा चतुर अवतार,
जीवन में आयी मानो डोपामिन की बहार,
तुझसे ही मिला यह विशेष समाचार
मेरे अनुयायी करोड़
और चाहने वाले हज़ार।
गर्दन झुकी उँगलियाँ व्यस्त
आँखें चौंधियाई मन मदमस्त,
निरंतर संपर्क की ललक जबरदस्त,
एक तिहाई दिनांश
मात्र चुटकी में ध्वस्त।
बिन सुई बिन धागा
मैंने ही पिरोयी
यह तृष्णा की माला,
बिन उम्र की रेखा
मैंने ही सजाई
यह आज की मधुशाला।
है रीढ़ सम्बन्धी कुरूपता
भारकेंद्र आगे को झुकता ,
कंधे अतिसख्त
मानो उन पर बैठा
कोई आठ वर्षीय बालक,
डिस्क को स्पर्शती नस नस
अंग अंग में खिंचाव शूल दर्द,
स्पोंडिलाइसिस सांस की विरलता
उँगलियाँ सुन्न कोहनी क्लिष्ट,
क्योकि मैं तो युवा हूँ जवां हूँ
है नोमोफोबिआ का आक्रमण
बेचैनी जुनूनी चिड़चिड़ापन
सीने में तीव्र गरमाहट,
एक नकार की खटक,
प्रयोग के दौरान अनंत आनंद
तत्पश्चात मन की थकावट,
असीमित स्तर
अनंतता का भोग,
फिर भी अविजयी सा भाव
आतंरिक रिक्तता का रोग।
तो क्या हुआ कि
है अतिसक्रियता वाकविकार
मिरगी आनाकानी
ध्यानाभाव का विस्तार,
निर्बल होता आत्मसम्मान
दुर्बल होते सामाजिक सम्बन्ध
बढ़ती हुयी अनिद्रा,
घटती हुयी संज्ञानात्मक क्षमता,
तुलना के चलन में
प्रकृति से परे आत्मज्ञान से दूर,
मृगतृष्णा सी दौड़ में
अभाव की बढ़ती हुयी भावना से मजबूर।
पर डरें वह आए दिन
विश्व भ्रमण करने वाले दुश्मन,
मेरे तंत्रिका तंत्र मस्तिष्क तो हैं नम्बर वन,
क्योंकि मैं तो युवा हूँ जवां हूँ
अब तक नशे में कहाँ हूँ।
अपनी सोशल मंडली में सबसे मशहूर,
अधिकार से चलाते
यह समकोणी अलंकार,
इसे चला रही एक धुरंधरी सरकार?
हैं भरे पड़े
क्षण में दिखा देती
अरबों के आंकड़ों से जन्मी
यह संस्तुति की कतार।
अपनी सोशल मंडली में सबसे मशहूर।
जितने कस के थामे हो यह
उतने रस से समझ लो
निहित रसायन रंगीन।
काली रात में नीली ज्योति का दिन
रोक देता है निद्राप्रेरक मेलाटोनिन,
वह बढ़ती हुयी ईर्ष्या के तोल मोल
जन जाते हैं हानिकारक कोर्टिसोल।
आज है तुरंत संतुष्टि की लत
निरंतर आनंद की आरज़ू,
पर जन्मजात आता तुम्हे
क्या पुनः पाना है
स्वास्तित्व आतंरिक मान्यता
क्या पुनः कमाना है
चिरकालिक संतुष्टि
ब्रह्माण्ड हेतु कृतग्यता का भाव?
तो कांधों की रेखा में
सजगता से रख यह नेत्र,
सचेतन स्वीकारो कि हो
तुम व्यसनी नंबर एक।
यदि सत्य में
त्याग सको यह नित्य नकार,
मानना स्वयं को
एक वर्चस अवतार।
ईश्वर प्रदत्त पृथक गुण कौशल
प्रकृति प्रदत्त कितने उपहार,
है अब तक अप्रयुक्त
तंत्रिकोशिकाओं से रचा
एक मस्तिष्क ढलनदार,
जिस छोर को ढूंढा
हर अंतरजाल हर संजाल
तेरे भीतर ही कहीं है,
नशे में तो नरक था
असली जीवन असली स्वर्ग
बस यहीं है यहीं है यहीं है।
Copyrighted/Published: https://sahityakunj.net/entries/view/aaj-ki-madhushala
सन्दर्भ:
१. संदीप महेश्वरी की "Caught in the web" वेब सीरीज पर आधारित (https://www.youtube.com/watch?v=ZyBzECeeydY)
२. पहली दो पंक्तियाँ हिंदी फिल्म गीतकार आसिम रज़ा की रचना (फिल्म कलयुग) पर आधारित
विश्व नशामुक्ति दिवस (World De-addiction Day) के सचेत अवसर पर मेरी नयी रचना
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