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आपके कंधों पर
बार बार एक स्वप्न आकर
धर जाता मेरी आँखों पर,
मैं छोटी सी गोल मटोल सी
श्वेत फ्रॉक पर श्वेत रूमाल लटकाकर,
श्वेत फ्रॉक पर श्वेत रूमाल लटकाकर,
रसना गर्ल से केश सजाकर,
बड़े गर्व से अधिकार से
बैठी हूँ आपके कंधों पर।
बड़े गर्व से अधिकार से
बैठी हूँ आपके कंधों पर।
घूमूँ एक रंगीन सा मेला
जिस पर दृष्टि रुके
वह खेलयंत्र मेरा,
वह खेलयंत्र मेरा,
त्रिकोणी पतंगे प्रतिसम गुब्बारे
बटोरे कितने चाँद सितारे
बटोरे कितने चाँद सितारे
गुल्लक भर भर कर,
बड़े गर्व से अधिकार से
बैठकर आपके कंधों पर।
बैठकर आपके कंधों पर।
भोर हुयी तो थी मैं जैसे
एक नीरस श्वेतश्याम
एक नीरस श्वेतश्याम
चित्रपट के सेट पर,
ढीले खुदे पन्नो के धुआँरे
बिखरे उड़ते इधर उधर,
बिखरे उड़ते इधर उधर,
सूना बेरंग ही रहा था सदा
यह धुआँधारी नगर में
यह धुआँधारी नगर में
बसा दादी का घर,
मात्र स्वप्न ही था वह जहाँ
बड़े गर्व से अधिकार से
बैठी थी आपके कंधों पर।
संगमरमरी नगर
से फिसल निकल मैं,
सुमोहित रंगीली दुनिया से,
सुमोहित रंगीली दुनिया से,
सुपोषित रसीले विषयों से,
पुकारते यंत्र अधिगम,
गले लगाती डेटा संरचना,
पुचकारता संगणक विज्ञान,
मीठी गोली खिलाते पाठ्य खनन,
सिर-चढ़ाते खगोल भूगोल,
पीठ थपथपाती त्रिकोणमिति ज्यामिति,
आधी रात धैर्य से गोदी में सुलाते तकनीकी शोधकार्य,
धुल गया धुंधला गया
वह स्वप्न जहां
बड़े गर्व से अधिकार से
बैठी थी आपके कंधों पर।
वह स्वप्न जहां
बड़े गर्व से अधिकार से
बैठी थी आपके कंधों पर।
एकाएक आया
मध्यजीवन घोरसंकट,
मोहभंग हुआसुन सुन कर रंगो का शोर,
शिथिल पड़ी
पी पी कर रसों का घोल,
शिथिल पड़ी
पी पी कर रसों का घोल,
फिर सताने जगाने लगा
वही स्वप्न जहां
बड़े गर्व से अधिकार से
बैठी थी आपके कंधों पर।
वही स्वप्न जहां
बड़े गर्व से अधिकार से
बैठी थी आपके कंधों पर।
बैठ कंधों पर अब
देख सकती थी सात समुन्दर पार,
वह धुआँरे ढेर बन चुके थे
क्रन्तिकारक काव्य संकलनों की कतार।
पुकारने लगे "भोर के गीत"
गले लगाने लगी "प्रभात फेरी"
पुचकारने लगे "रजनी के पल"
मीठी गोली खिलाने लगी "सुरबाला"
सिर-चढ़ाने लगे "सिर पर शोभित मुकुट हिमालय"
गले लगाने लगी "प्रभात फेरी"
पुचकारने लगे "रजनी के पल"
मीठी गोली खिलाने लगी "सुरबाला"
सिर-चढ़ाने लगे "सिर पर शोभित मुकुट हिमालय"
पीठ थपथपाने लगे "आज़ादी के पहले आज़ादी के बाद"
आधी रात धैर्य से गोदी में सुलाने लगे "विजन के फ़ूल"।
जड़ो में जकड़े काव्यरसों का
जबसे जलपान किया है,
शैशव के बारम्बार स्वप्न को
पूर्णतः भान लिया है,
उस श्वेतता में निहित इंद्रधनुष को
अंततः पहचान लिया है।
हे स्वप्नसम्राट! हे कविराज!
लो कवि बन ही गई मैं
गई मेरी भी अन्तःवाणी निखर,
गर्व से अधिकार से नहीं
विनम्रता से कर्त्तव्य से,
बैठी नहीं खड़ी हूँ आज
आपके स्वप्नमय महामय कंधों पर।
आपके स्वप्नमय महामय कंधों पर।
सन्दर्भ: https://en.wikipedia.org/wiki/Indra_Bahadur_Khare
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