पृष्ठभूमि: शरद पूर्णिमा पर संगी कवियों से मेरा लघु अनुरोध!
मत जगना उस रैना
मेरे प्यारे कविवर!
तुम्हे कलम की सौगंध
मत जगना उस रैना
मत लिखना ऐसा छंद -
जिसे देखते ही
जी ना फिसल जाए,
जो विचलित से चित्त को
संलग्न ना कर पाए,
जिसे बारम्बार पढ़ने को
मन नहीं ललचाये,
जिसके सेवन से
भीतर की ऋतु ना बदल पाए।
मत जगना उस रैना
मत लिखना ऐसा छंद -
जिसमे वही पुरानी उपमाएँ
जबरन के तुकांत समाये,
जो एकपरतीय विषय पर
मात्र बहुमत दर्शाये,
जिसमे आरम्भ से अंत रहे
मनोदशा जस की तस,
जिसकी छवि में छाया हो
मात्र एक अमावस।
मेरे प्यारे कविवर!
तुम्हे कलम की सौगंध
अपलक तारे गणना
रच जाना ऐसा छंद -
जो धारारुख मोड़ जाए
पत्थरों को तोड़ जाए
मन के तार मरोड़ जाए
प्राणों को झकझोड़ जाए।
तो बस!
त्याग दो लज्जा
झिझक के सारे रोधक अभ्र,
मूंद लो दो नैन
बस तुम झाँक लो भीतर,
देख लो अंदर विराजित
अक्षरा के स्वर,
चीर कर अपना ह्रदय
करो पद्य न्योछावर,
दान दो एक घटती बढ़ती
चेतना की सैर,
ग्यारसों से धुलते जाएँ
मन के सारे बैर,
जाग लो जब तक ना हो
उस सूचिका में सूत,
काव्य में जब तक ना हो