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पृष्ठभूमि: कच्ची उम्र से जैनधर्म के इस पर्व से सम्मोहित मेरी नयी रचना
असली क्षमावाणी
हाँ! उन्होंने हमें ठेस पहुंचाई!
हाथ बने उपहारों की कीमत न चुकाई
एहसानों की सुधबुध न आई,
कौशलों की कद्र न जताई
दोषों की प्रसिद्धि करवायी,
मन के कोलाहल की हंसी उड़ाई,
पदोन्नति पर दी न बधाई
चुनौतियों में संवेदना न दिखाई,
रक्तरंजित प्रेमपत्र के उत्तर एक चिट्ठी न आई
सालों की मित्रता पर सालगिरह याद न आई,
अंश के जन्म पर नहीं की गोद भराई
परिजन की मृत्यु पर सांत्वना न आई,
हाँ, उन्होंने हमें ठेस पहुंचाई।
क्षमा तो मांगी नही तनिक भी
फिर भी चलो हमने उन्हें माफ किया
पर्यूषण के अवसर पर
अपना मन भी साफ किया।
हाय! यह मैंने क्या किया था!
मति मारी गई थी या चरस खा लिया था?
सप्रेम भेंटो पर मुँह बना दिया था
कितनों की कृपाओं को भुला दिया था,
खरी प्रतिभाओं पर प्रश्न उठा दिया था
राई सी त्रुटियों का तमाशा बना दिया था,
उनके भिन्न होने का उपहास किया था
उनकी व्यग्रता को हंस कर नकार दिया था,
दूजे की विजय को सहा नहीं था
उनके संघर्षो को सुन मन ही मन मुस्का दिया था,
निर्दोष प्रेम को झट से जुदा किया था
बचपन की मित्रता पर दार धरा दिया था,
दूजे के शुभ समाचार पर स्वयं को जला लिया था
कुटुंबी को शैय्याग्रस्त अंततः विदा किया था,
हाय, यह मैने क्या किया था,
मति मारी गई थी या चरस खा लिया था?
दोष तो अक्षम्य थे
फिर भी चलो आज स्वयं को माफ किया,
पर्यूषण के अवसर पर
अपना मन भी साफ किया।
यह उपरोक्त वाक्य
कुछ सुने सुने से लगते हैं
प्रतिवर्ष पुनरावृत्त हो
फिर सधे सधे से बंटते हैं।
पर लोग जितना सुन्दर बोलते है
जितना सुन्दर लिखते हैं,
उतने सुन्दर क्यों नहीं दिखते हैं?
मात्र तीस के फिर साठ के क्यों दिखते हैं?
क्यों यह काले रंगे केश
हाथ फेरते ही गिरते हैं?
कहीं ऐसा तो नहीं कि
वचन में क्षमावाणी
पर मन में जटिल गांठे लिए फिरते हैं?
आज पर्व के पहले दिन
पहली बार दिल खोल ही दो
क्षमा का यह ढोंग करना छोड़ ही दो,
मन की गीता पर हाथ रखो
लोकमत से डरना छोड़ ही दो,
सच सच कहो!
क्या दूजों को
क्या स्वयं को माफ किया?
मेरे प्रिये! सच कहूँ तो,
वर्षों से निरामिष होकर भी
तामसिक प्रवृत्ति नहीं जाती है,
माफ़ किया बोलकर भी
स्मृतियाँ साफ़ नहीं हो पाती है,
भींख मांगने पर भी
हमारे हिस्से क्षमा नहीं आती हैं
दर्दनाक गुत्थियाँ
पत्थर की लकीर की तरह
वहीं की वहीं रह जाती हैं।
खम्मामि सव्व जीवेषु सव्वे जीवा खमन्तु में, मित्ति में सव्व भू ए सू वैरम् मज्झणम् केण इ
कितना अयथार्थ
कितना असंभव
यह उपलक्ष्य लगता है,
स्पष्ट प्रतीत होता है
फिर भी दूर यह लक्ष्य लगता है।
जैन तो नही जन्मे
न बन पाए श्वेताम्बर दिगंबर,
अतितुच्छ हम कैसे जाने
इस अतिमहामना पर्व का मंतर,
फिर भी प्रयत्न करते हैं
इसे सीधे पंचपरमेष्ठी से सीखने का,
घोर साहस करते हैं
इसे स्वरचित शब्दों से देखने का।
हे अरिहंत! मुक्ति दो
मन की जटिल गुंथन से
काया की वजनी जकड़न से ।
हे सिद्ध! भर दो
उत्तमक्षमा को चित्त में ह्रदय में प्राण में।
स्वयं को क्षमा कर पुनः आत्मविश्वास धरूं।
हे उपाध्याय ! शक्ति दो
दूजों को क्षमा कर पुनः विश्वास कर उन्हें वरदान दूं।
हे मुनि! शक्ति दो
विषण्ण क्रोध के पीढ़ीगत प्रतिरूप से
स्वयं को वंशजों को चिरस्वतंत्र करूँ।